क्या कांग्रेस पार्टी भारतीय जनता पार्टी की तरह ही साम्प्रदायिक है? यह प्रश्न एक बार फिर मध्य प्रदेश की दो घटनाओं के बाद पूछा जा रहा है। इसके पहले कि हम इस सवाल पर आगे बात करें, इस घटना को याद कर लेना ज़रूरी है। घटना में सिर्फ़ पुलिस की कार्रवाई को ही नहीं, सरकारी और पार्टी की प्रतिक्रिया को भी शामिल किया जाना चाहिए।
मध्य प्रदेश में आगर मालवा जिले में दो लोगों को अवैध तरीक़े से गाय ले जाने के आरोप में राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के अंतर्गत जेल भेज दिया गया है। इन दो में एक हिंदू भी हैं। इस घटना के पहले खंडवा में तीन लोगों पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत कार्रवाई की गई थी। यह सब कुछ नई कांग्रेस सरकार के आने के बाद हुआ है। कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक प्रवक्ता ने बड़ी सावधानी से कहा कि क़ानून व्यवस्था राज्य का मामला है। मुख्यमंत्री कमलनाथ एक अनुभवी प्रशासक हैं जिन पर पार्टी को भरोसा है। अगर किसी पुलिस अधिकारी ने ज़्यादती की है तो उचित कार्रवाई होगी। लेकिन पार्टी इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी।
क्या सिर्फ़ ग़लत बताना काफ़ी है?
इसके पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने इन प्रसंगों में राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून का इस्तेमाल किए जाने को ग़लत बताया था। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी इसकी आलोचना की थी। दोनों के स्वर में वह तीखापन न था जो आम तौर पर भारतीय जनता पार्टी की सरकारों के होते हुए इस तरह की घटनाओं पर उनकी प्रतिक्रिया में पाया जाता था। इसे कुछ लोग स्वाभाविक कह सकते हैं। आख़िर यह ख़ुद उनकी पार्टी का मामला है और क्या उन्होंने इसलिए उसकी आलोचना नहीं की, यह पूछा जाएगा।
लेकिन इसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता कि मुख्यमंत्री चुप हैं।
पुलिस अधिकारियों का तर्क पुराना है, यानी भारतीय जनता पार्टी की सरकारों के वक़्त से सुना जाता है कि उनके इलाक़े साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील हैं और गाय ले जाने की इस तरह की हरकतों से उत्तेजना और हिंसा भड़क सकती है।
फिर भी यह आशंका क्योंकर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून जैसे सख्त क़ानून का इस्तेमाल करने के लिए पर्याप्त है, इस पर हम बात नहीं कर रहे।
दूसरी तरफ़ वे लोग हैं जो भारतीय जनता पार्टी की सरकारों के ऐसे क़दम को जायज़ ठहराते रहे हैं लेकिन अब इन दो घटनाओं का ज़िक्र चटखारे लेकर कर रहे हैं यह पूछते हुए कि पुराने आलोचक अब चुप क्यों हैं! इससे यह समझना मुश्किल है कि क्या उन्हें पुलिस की कार्रवाई पर ऐतराज है या वे कांग्रेस और उसके समर्थकों की दुविधा का मज़ा ले रहे हैं।
- इन दो घटनाओं पर कांग्रेस के भीतर जो शर्मिंदगी भरी उलझन है, वह उसे भारतीय जनता पार्टी से अलग करती है। कांग्रेस विचारधारात्मक रूप से साम्प्रदायिक या बहुसंख्यकवादी नहीं है लेकिन उसके और उसकी सरकारों के कुछ क़दम हिंदू भावनाओं के तुष्टीकरण के लिए उठाए गए लगते हैं, यह कहने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी में विचारधारा और उसकी हर कार्रवाई में पूरा मेल है। यह अन्तर पर्याप्त नहीं है लेकिन महत्त्वपूर्ण है। इसलिए कांग्रेस को उसकी विचारधारा की याद दिलाकर शर्मिंदा किया जा सकता है।
कांग्रेस का बहुसंख्यक तुष्टीकरण
अपनी विचारधारा के बावजूद कांग्रेस ने बहुसंख्यक तुष्टीकरण या उकसावे की तरकीब का इस्तेमाल पहले भी किया है। 1984 के लोकसभा चुनाव में उसने जो नारे और पोस्टर बनाए थे, उनका मकसद साफ़ तौर पर बहुसंख्यक भय को उत्तेजित करना था।
इंदिरा गाँधी ने ख़ुद अपने बाद के दिनों में बहुसंख्यकवादी प्रतीकों का प्रयोग करना शुरू कर दिया था। इसके बाद वे अधिक हिंदू दीखने की कोशिश करने लगी थीं।
- भागलपुर में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा के बाद प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने जब वहाँ के ज़िम्मेवार पुलिस अधिकारी पर कार्रवाई की घोषणा की तो उन्हें पुलिस और हिन्दुओं का विरोध झेलना पड़ा। उसके बाद प्रधानमंत्री ने अपना फ़ैसला बदल दिया।
ये सारे उदाहरण बहुसंख्यकवाद के आगे कांग्रेस के घुटने टेक देने के हैं। राम जन्मभूमि के शोर में बाबरी मसजिद का ताला खुलवाकर उसे पूजा के लिए खोल देने के प्रसंग को भी नहीं भूला जा सकता।
लेकिन कांग्रेस के भीतर धर्मनिरपेक्षता को लेकर जो उदासीनता और बेपरवाही आई है, वह उसके पतन का भी कारण है। जनता देख रही है कि कांग्रेस को अपने विचार को ताक़त पर भरोसा घट गया है। इसलिए उसे कांग्रेस पर भरोसा करने का कारण भी नज़र नहीं आता।
कांग्रेस के लिए बहुसंख्यकवाद का सहारा लेना जब सबसे आसान था, उसने उसका मुक़ाबला किया। गाँधी ने उसकी क़ीमत जान देकर चुकाई, नेहरू मौत के पचपन साल बाद भी बहुसंख्यकवादी घृणा के हमले झेल रहे हैं। नेहरू की बेटी इंदिरा ने आज़ादी के तुरंत बाद कांग्रेस और प्रशासन में बहुसंख्यकवादी पूर्वाग्रह के प्रभाव को लेकर चिंता और नाराज़गी जाहिर की थी।
- इन उदाहरणों के बाद कांग्रेस के भीतर भी कई पीढ़ियाँ आ गईं जिन्होंने बहुसंख्यकवाद के रणनीतिक इस्तेमाल की भाषा ही सुनी और उसे उचित माना।
समय गुजरने के साथ चुनावी दबाव में यह धर्मनिरपेक्षतावादी संकल्प छीजता चला गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदुत्व का उत्तर देने के लिए असली, उदार हिंदूपन की खोज के सुंदर आवरण के पीछे कांग्रेस ‘हिंदू’ भावनाओं के तुष्टीकरण में जुट गई। यह मानकर कि उसके पास गाँधी और नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की पूँजी तो है ही और इसलिए अल्पसंख्यकों का साथ उसे मिलता रहेगा। लेकिन इसकी भी एक मियाद है। वह पूँजी अपने आप अक्षय नहीं है। उपयोग और विनिमय के बिना उसका अस्तित्व नहीं है और कोई मोल भी नहीं है।
कांग्रेस साम्प्रदायिक अभी भी नहीं है लेकिन उसकी धर्मनिरपेक्षता हिचकिचाती धर्मनिरपेक्षता में बदल गई है। इससे उसकी प्रामाणिकता भी संदिग्ध होती जाएगी ही।
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