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नामवर सिंह 90 के हो गए हैं और थोड़े से कुछ ज़्यादा अकेले भी

नामवर सिंह के 90 साल पूरे करने पर हिन्दी साहित्य के आलोचक अपूर्वानंद ने यह लेख लिखा था। 
अपूर्वानंद

नामवर सिंह नब्बे साल के हो गए हैं। कसरती बदन के नामवर सिंह, जिन्हें देखकर कभी पहलवान से मिलने का भ्रम होता था, अब कृशकाय हो गए हैं। वे बहुत धीरे चलने लगे हैं और उनकी आवाज़ भी मद्धिम हो चली है। काल मर्त्य शरीर से यह कीमत तो वसूलता ही है, इसलिए इसका अफ़सोस नहीं।

नब्बे साल का होना भी अब ख़बर नहीं, क्योंकि आम तौर पर दीर्घायुता में वृद्धि हुई है। लेकिन किसी आलोचक का तकरीबन सत्तर साल तक रचनात्मक रूप से सक्रिय बने रहना ज़रूर ख़बर है। रचनात्मक सक्रियता के साथ अपने समय के लिए  प्रासंगिक बने रहने को भी जोड़ लेना चाहिए। अपनी पीढ़ी के लिए उन्होंने जो सख्त साहित्यिक कसौटी बना रखी थी, जिसका पता उनके पुस्तक 'कहानी नई कहानी' से चलता है, उसका इस्तेमाल वे नई रचनात्मकता के लिए नहीं करते दिखाई देते। इसे कई लोग ढिलाई कहते हैं।

नामवर सिंह के प्रति अभी भी तरुण पीढ़ी का आकर्षण है। अभी भी वह उनसे समर्थन और अभ्यर्थना चाहती है। नवीनता और तरुणाई में नामवर सिंह की दिलचस्पी भी वैसे ही बनी हुई है। उसके प्रति उनके मन का स्वागत भाव कई बार उन्हें अत्यंत उदार बना देता है।

कुछ का कहना है कि उम्र के साथ उनकी तीक्ष्णता में कमी आई है, कुछ का ख्याल है कि वह अपने समर्थकों की संख्या घटने के भय से किसी को अपने ख़िलाफ़ नहीं करना चाहते। लेकिन ये सब सतही बातें हैं। नामवर सिंह में साहस कभी कम नहीं रहा, विवाद पैदा करने से भी वे कभी पीछे नहीं हटे। अजातशत्रु बने रहने का लोभ उन्हें कभी रहा नहीं। इसलिए गलत होने का ख़तरा उठाकर भी जब वे नएपन के प्रति स्वीकार्यता का भाव रखते हैं तो कई बार लगता है कहीं वह  बर्तोल्त ब्रेख्त की रास्ते पर तो नहीं जिनके मुताबिक़ कितना ही खराब क्यों न हो, नए को हमेशा पुराने पर, वह भले ही बहुत अच्छा हो, तरजीह देनी चाहिए! नयेपन के प्रति उत्साह में उनके साथी सिर्फ अशोक वाजपेयी हो सकते हैं। यह अलग बात है कि नवीनता में जिस विश्वास का निवेश ये दोनों करते हैं, वह स्वयं उसकी रक्षा कर पाती है या नहीं!

नामवर सिंह को मार्क्सवादी आलोचक कहा जाता रहा है। एकाधिक बार उन्होंने मार्क्सवादी विशेषण को अनावश्यक बताया है। इसका अर्थ क्या है? क्या इसके मायने ये हैं कि आलोचक को दर्शन या राजनीतिशास्त्र से आयातित किसी कवच की ज़रूरत नहीं? आलोचना अपने आप में  एक स्वतंत्र और पूरी कार्रवाई है और उसे किसी विचारधारा की लाठी नहीं चाहिए, इसका एक मतलब यह हो सकता है। लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि वह वस्तुतः साहित्य को अपना आरम्भ और प्रस्थान बिंदु मानती है। दर्शन या समाजशास्त्र से उसका एक रिश्ता तो हो सकता है, बल्कि है ही, लेकिन वह उसकी छाया में पलने को बाध्य नहीं या उससे अपनी वैधता हासिल नहीं करती।

आलोचना और शास्त्र का सम्बन्ध भी कुछ ऐसा ही है। आलोचना को शास्त्र का बोध तो है लेकिन उसका काम रचनात्मकता की पहचान का है, वह शास्त्र के मुकाबले रचनात्मकता से प्रतिबद्ध है। इसका अर्थ यह है कि वह सांस्थानिकता से अधिक वैयक्तिकता पर बल देती है। नामवरजी ने स्वयं आलोचना कर्म की चर्चा करते हुए हुए इस पर जोर दिया है : आलोचना का काम वैयक्तिक प्रतिभा को उआगर करना है। वह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक 'कबीर' का उदाहरण देते हुए कहते हैं उसमें उनका जोर कबीर की वैयक्तिक काव्य प्रतिभा को सामने लाना था। यह फिर एक अलग बात है कि कई लोग इसी वजह से आचार्य द्विवेदी को आलोचक मानते ही नहीं कि उनकी आलोचनातमक रचनाओं में पर्याप्त शास्त्रीयता दिखलाई नहीं देती। नामवरजी का कहना है कि शास्त्र में आलोचना प्रसंगवश होती है, उसी तरह आलोचना में शास्त्र को प्रसंगवश ही होना चाहिए। आलोचना शास्त्र का व्यावहारिक निरूपण नहीं है। 

असल चीज़ है: वैयक्तिक प्रतिभा खोज और उसका महत्व स्थापन। यह इसलिए कि रचना तो व्यक्ति करता है, संस्थान या समाज नहीं। फिर उस व्यक्ति को पीछे रखकर कोई बात आलोचना कैसे कर सकती है? नामवरजी के इस व्याख्यान पर ध्यान नहीं दिया गया है, वरना उन्हें भी मार्क्सवाद विरोधी घोषित कर दिया जाता क्योंकि वे व्यक्ति पर इतना जोर दे रहे हैं।
उसका प्रमुख दायित्व रचनात्मकता में श्रेष्ठता को चिह्नित करना भी है। इसका अर्थ है, आलोचना को निर्णय करना है। अगर वह श्रेष्ठता का संधान है तो उसे अपना फैसला सुनाना होगा। नामवरजी इस बात के कायल नहीं कि आलोचना का काम तो सिर्फ पढ़ना है, श्रेष्ठता का निर्धारण समय कर देगा।उनका कहना है कि जो ऐसा कहते हैं वे दरअसल अपने काम से मुँह चुरा रहे हैं। इस बात से वे पूरी तरह वाकिफ हैं कि आलोचक जिस समय अपना निर्णय सुना रहा होता है, उसी समय वह भी खुद को निर्णय के लिए प्रस्तुत कर रहा होता है। यानी,सच्चा आलोचक तो वही होगा जो खुद निष्कवच हो।कहा ही गया है कि आलोचना जब रचना को अनावृत कर रही होती है तो खुद को भी अनावृत करती है। कबीर के शब्द लेकर कहें तो आलोचना के घर में दाखल होने के के लिए पहले अपना सर उतारकर जमीन पर रख देना होता है। 
श्रेष्ठता की खोज क्या आभिजात्यवादी है? श्रेष्ठता है ही क्या और क्यों प्रत्येक व्यक्ति में इसकी संभावना है, इस पर कायदे से बात नहीं की गई है क्योकि श्रेष्ठता और साधारणता को एक दूसरे का विरोधी मान लिया गया है। श्रेष्ठता को एक अधिकार की तरह भी देखा जा सकता है और इस पर विचार किया जा सकता है क्यों इससे हमारी मनुष्यता का बहुलांश वंचित रखा जाता है। जब बहुलांश को मनुष्यता के औसत स्तर पर रखने के ही उपाय किए जाते हैं और वही उसका प्राप्य माना जाता है तो औसतपन समाज का स्वभाव बन जाता है। आलोचना का एक काम श्रेष्ठता को आदर्श के तौर पर  सामने रखना है और उसी के लिए संघर्ष करना है।
नामवर सिंह का एक किस्सा मशहूर है। किसी जनवादी या क्रांतिकारी साहित्यिक सभा में उन्होंने अपने चुभते अंदाज में कहा कि कि जो दो वाक्य सुन्दर लिख नहीं सकते वे सुन्दर समाज क्या खाक बनाएँगे! समाज में समानता क्या एक बहुत नीची सामान्य भूमि पर ही उपलब्ध की जा सकती है? या समानता का श्रेष्ठता की महत्वाकांक्षा के साथ कोई मेल सम्भव है?
नामवर सिंह नेहरू युग में गढे गए। यह भारत में आलोचना का काल भी कहा जा सकता है। नेहरू ऐसे राजनेता थे जिन्हें चौतरफा  आलोचना का सामना करना पड़ा था और वे खुद भी भारत के सख्त आलोचक थे। यह हिंदी में भी आलोचनात्मकता का समय था। बाद में धीरे-धीरे आलोचना एक संदिग्ध गतिविधि हो उठी।आलोचना को रचना के जन संपर्क विभाग की तरह ही स्वीकार करने की प्रवृत्ति ने आलोचना की स्वायत्त सत्ता की आवश्यकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया।नामवर सिंह से भी बाद की रचनात्मकता कोई आलोचनात्मक रिश्ता बनाने की जगह सिर्फ अभ्यर्थना ही चाहने लगी। नामवर सिंह आलोचना के क्षरण के काल में अगर धीरे-धीरे अकेले पड़ने लगे हों तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं। अब वे ऐसे समय में हैं जिसमें वह अपने आप से ही बात कर सकते हैं क्योंकि और किसी को शायद उनकी जुबान समझ में भी न आए।
(अपूर्वानंद की अनुमति से 'सत्याग्रह' से साभार)
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अपूर्वानंद
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