भारत में अपने सबसे बड़े हमले से पाकिस्तानी आतंकवादी गुट जैश-ए-मुहम्मद ने यह साफ़ संकेत दे दिया है कि वह कश्मीर घाटी में तेज़ी से उभर रहा है। उसका यह उभार ऐसे समय हो रहा है जब अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फ़ौज़ लौटने वाली है और जैश को संचालित करने वाला आईएसआई तालिबान के ज़रिए काबुल पर कब्जा करने की तैयारी में है। तो क्या तालिबान-आईएसआई-जैश का त्रिकोण कश्मीर को बुरी तरह अस्थिर करने की फिराक में है? यह सवाल उठना लाज़िमी है।
साल 1999 के दिसंबर महीने में इंडियन एअरलाइन्स विमान का अपहरण कर कान्धार ले जाने और भारत की जेल में बंद अज़हर मसूद को रिहा कराने के पीछ पाक ख़ुफ़िया एजेन्सी आईएसआई और अफ़ग़ान आतंकवादी गुट तालिबान की भूमिका बिल्कुल साफ़ है।
उसके बाद ही आईएसआई की मदद से अज़हर ने जैश-ए-मुहम्मद का गठन किया। पाक ख़ुफ़िया एजेन्सी का मक़सद कश्मीर में चल रहे अलगाववादी आन्दोलन को अलग कश्मीर की माँग करने वाले तत्वों के हाथ से छीन कर ऐसे लोगों के हाथों में सौंपना था, जो पाकिस्तान में कश्मीर का विलय चाहते थे। इसके अलावा आईएसआई को यह भी लगने लगा था कि कश्मीर का आंदोलन थोड़ा नरम है और वह पूरे कश्मीर के लोगों को अपने साथ नहीं जोड़ पा रहा है। ऐसे में अज़हर मसूद ज़्यादा उग्र आंदोलन छेड़ कर भारत के साथ आर-पार की लड़ाई के आईएसआई अंजेडे को बेहतर तरीके से लागू कर सकता था। आईएसआई की मदद से जैश मज़बूत होता गया, लेकिन उसका ध्यान भारत नहीं, अमेरिका पर रहा और उसने पाकिस्तान में अमेरिकी हितों पर कई बार छोटे-मोटे चोट किए।
9/11 के बाद बढी दूरियाँ
अमेरिका में 9/11 के हमले के बाद जिस तरह परवेज़ मुशर्रफ़ वाशिंगटन के दबाव में आकर आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में सहयोग करने को तैयार हो गए, अज़हर को झटका लगा। बाद में मुशर्रफ़ पर हमला करने के आरोप तक जैश पर लगे। जैश कुछ साल तक थोड़ा शांत रहा, क्योंकि उसके पर बुरी तरह कतर दिए गए थे। लेकिन मुशर्रफ़ के सत्ता से हटने, अमेरिका से पाकिस्तान के रिश्ते बिगड़ने और अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के मज़बूत होने से जैश की उपयोगिता एक बार फिर बढ़ी। धीरे-धीरे जैश भी मज़बूत होने लगा।जैश के आईएसआई से रिश्ते तो हैं ही, उसके तार तालिबान से भी जुड़े हुए हैं। इस त्रिकोण को समझने के लिए दो उदाहरण काफ़ी हैं। अज़हर मसूद ने आतंकवाद की ट्रेनिंग निज़ामुद्दीन समजई से ली थी। इंडियन एक्सप्रेस अख़बार के मुताबिक़, तत्कालीन आईएसआई प्रमुख शुज़ा पाशा ने अमेरिकी दवाब में आकर समजई को तालिबान यह समझाने के लिए भेजा कि वह ओसामा-बिन-लादेन को सौंप दे। बात नहीं बनी, पर तालिबान और जैश का रिश्ता इससे साफ़ होता है। इसी तरह, 2009 में जब रावलपिंडी में पाकिस्तान तालिबान ने हमला कर कई सैनिकों को बंधक बना लिया, तो आईएसआई ने तालिबान से बातचीत के लिए जैश का इस्तेमाल किया था। बातचीत करने वालों में अज़हर मसूद का भाई अब्दुल रउफ़ असगर भी शामिल था।
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मज़बूत हुआ जैश
मसूद अज़हर के पिता अल्लाह बख्श द्वारा स्थापित अल रहमत ट्रस्ट को पुनर्जीवित किया गया और मदरसा खोलने और ग़रीबों की मदद करने के नाम पर खाड़ी देशों से उसे पैसे मिलने लगे। साल 2010 आते-आते उसके पास इतने पैसे हो गए कि जैश ने पाकिस्तान में 300 से ज़्यादा मदरसे खोले और मसजिदें बनवाईं। जैश के प्रकाशन विभाग ने दावा किया कि वह भारत और दूसरे देशों में मारे गए 850 लड़ाकों के परिजनों को पेंशन देता है और दूसरे तरीकों से आर्थिक मदद करता है। जैश की पत्रिका अल कलाम पाकिस्तान में खुले आम बिकती है और इसे विज्ञापन लेने की पूरी छूट है। मसूद अज़हर 'सादी' के छद्म नाम से इसमें एक नियमित कॉलम भी लिखता है।भारत की संसद पर 13 दिसंबर, 2001 को जब हमला हुआ, यह आरोप लगा था कि आईएसआई ने जैश-ए-मुहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा से यह हमला करवाया, जिसमें 14 लोग मारे गए थे। यह भारत पर जैश का पहला बड़ा हमला था।
संसद पर हमले के मामले में अफ़ज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने के बाद 2013 में उसकी याद में जैश ने पाकिस्तान में कई बड़े कार्यक्रम करवाए। सबसे बड़ा कार्यक्रम बहावलपुर स्थित जैश मुख्यालय में हुआ, जिसमें सैकड़ो लोगों मौजूद थे। अफ़ज़ल गुरु पर छपी किताब का पाठ किया गया और महिलाओं से अपील की गई कि वे इस गुट से जुड़ कर भारत के ख़िलाफ़ लड़ें। इसके बाद गुरु की बरसी पर जैश पाकिस्तान में हर साल कार्यक्रम करवाता रहा। पिछले साल मुज़फ्फ़राबाद में हुए कार्यक्रम में ख़ुद मसूद अज़हर मौजूद था और उसने भारत के ख़िलाफ़ काफ़ी ज़हर उगला था। यह सब पाकिस्तानी अधिकारियों और प्रशासन की मौजूदगी में तो होता ही है, उसके समर्थन से भी होता है।
साल 2014 तक जैश की यह स्थिति हो गई थी कि उसके पास पैसे थे, लड़ाके थे, ट्रेनिंग कैम्प था। वह खुले आम पूरे पाकिस्तान में भारत से लड़ने और कश्मीर आज़ाद कराने के नाम पर पैसे इकट्ठा करता था। अज़हर मसूद खुले आम कार्यक्रमों में शरीक होता था और भारत के ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ने की बातें करता था।अगस्त 2014 में अफ़ग़ानिस्तान के जलालाबाद शहर स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास पर हमला हुआ। इसमें नौ स्थानीय नागरिक मारे गए। उसके कुछ महीनों बाद जनवरी 2015 में अफ़ग़ानिस्तान के ही मज़ार-ए-शरीफ़ स्थित वाणिज्य दूतावास पर भी फ़िदायीन हमला हुआ। भारतीय एजेन्सियों का कहना है कि ये हमले आईएसआई ने करवाए थे, इसमें अफ़ग़ान तालिबान का हाथ तो सीधे तौर पर था, पर जैश की भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
भारत के अंदर जैश का दूसरा बड़ा हमला जनवरी 2016 में पठानकोट एअर बेस पर हुआ, जिसमें एक नागरिक और सुरक्षा बलों के सात जवान मारे गए थे। भारतीय ख़फ़िया एजेन्सियों का कहना था कि मसूद अज़हर और उसका भाई अब्दुल रउफ़ असगर इसके मास्टरमाइंड थे।
इसके बाद कश्मीर में जैश-ए-मुहम्मद की कार्रवाइयाँ बढ़ती गईं। भारतीय सुरक्षा बलों से छिटपुट झड़पें होती रहीं और दोनों तरफ से कुछ लोग मारे जाते रहे। बीते साल एक हमले में भारतीय सुरक्षा बलों के तीन जवान मारे गए थे। उसके बाद के पलटवार में अज़हर मसूद का भतीजा मारा गया था, ऐसी खबरें छपी थीं।
पुलवामा हमले से यह एकदम साफ़ है कि अब कश्मीर मे जैश की मज़बूत स्थिति है और आईएसआई उसके साथ है। आईसआई भारत पर अब अधिक ध्यान इसलिए भी दे सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान में उसकी स्थिति बेहतर है। तालिबान और अमेरिका में इस पर सहमति बन गई है कि अमेरिकी फ़ौज लौट जाएगी और तालिबान अफ़गान सरकार के लोगों और सेना पर पहले की तरह हमले नहीं करेगा। अफ़ग़ानिस्तान में तो भारत की स्थिति कमज़ोर होगी ही, नई दिल्ली को यह भी देखना होगा कि वह आईएसाई-जैश-तालिबान के गठजोड़ को कैसे तोड़ता है या उनकी चुनौतियों से कैसे निपटता है।
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