पुलवामा में हुए फ़िदायीन हमले से बहुत सारे सवाल सामने आ रहे हैं। देश में जो गुस्से का माहौल बनता जा रहा है, उसमें कुछ सवाल तो बहुत मज़बूती से उभर रहे हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल को तवज्जो ही नहीं दी जा रही है। कश्मीर के पिछले 20 सालों पर नज़र डालें तो चीजें काफ़ी हद तक स्पष्ट हो जाएँगी।
वाजपेयी सरकार ने की कोशिशें
मैंने कश्मीर में आतंकवाद के सबसे भयावह दौर में से एक दौर (2000-2002) को देखा है और रिपोर्टिंग की है। यह वह दौर था जब आतंकवाद तो चरम पर था ही, कश्मीर मसले के हल के लिए केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की कोशिशें भी चरम पर थीं। याद कीजिए आतंकियों के ख़िलाफ़ वाजपेयी सरकार का एकतरफ़ा युद्ध विराम और उसके पीछे से कश्मीरी उग्रवादियों को मुख्यधारा में लाकर चुनाव में खड़ा कर देने की कोशिशें।
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श्रीनगर एयरपोर्ट पर हुआ आतंकी हमला
16 जनवरी 2001 को श्रीनगर एयरपोर्ट पर आतंकी हमला हुआ। इसमें 6 आतंकी मारे गए थे लेकिन साथ ही तीन सीआरपी जवान व दो आम नागरिक भी शहीद हुए थे। इस आतंकी हमले की ख़ास बात यह थी कि आतंकवादी जिस जीप में बैठकर एयरपोर्ट तक पहुँचे थे, वह वन विभाग की थी और यह कुछ दिन पहले चोरी हो गई थी। यही नहीं, आतंकी इस जीप में सवार होकर उस समय के पीडब्ल्यूडी मंत्री अली मोहम्मद सागर के मोटरकेड में पीछे से शामिल हो गए थे।
आतंकी घटनाओं के बीच भी वाजपेयी सरकार हिज़बुल मुजाहिदीन के शीर्ष कमांडरों के साथ संपर्क में थी। वाजपेयी सरकार की ये कोशिशें उस समय भी जारी थीं, जब श्रीनगर में विधानसभा पर फ़िदायीन हमला हुआ।
पुलवामा जैसा ही था हमला
श्रीनगर में विधानसभा पर हुआ फ़िदायीन हमला बिलकुल वैसा ही था जैसा पुलवामा में सीआरपीएफ़ के काफ़िले पर हुआ। तारीख़ थी 1 अक्टूबर 2001 और विधानसभा चल रही थी। उस दिन का सत्र हो चुका था लेकिन विधानसभा अध्यक्ष व कुछ अन्य महत्वपूर्ण नेता विधानसभा के अंदर ही थे। 2 बजे का समय था कि विस्फोटकों से भरी हुई एक एसयूवी गाड़ी इमारत के गेट से टकराती हुई अंदर घुसी और उसी के साथ भयानक विस्फोट हुआ। विस्फोट के बाद दो आतंकी पुलिस वर्दी में फायरिंग करते हुए अंदर घुसे। कई घंटों की मुठभेड़ के बाद इन पाकिस्तानी आतंकियों को मारा जा सका था। इस घटना में 5 सुरक्षाबलों सहित 25 लोग शहीद हुए थे।
श्रीनगर में विधानसभा पर हुए हमले के दौरान भी परदे के पीछे कश्मीरी आतंकियों और अलगाववादियों से बातचीत की प्रक्रिया चलती रही। इसी दौरान वाजपेयी ने कहा था कि कश्मीर को लेकर बातचीत इंसानियत के दायरे में होगी।
कोशिशों के बाद भी नहीं सुधरे हालात
एक बार फिर कश्मीरी आतंकियों, ख़ासकर हिज़बुल मुजाहिदीन के नेतृत्व को मुख्य धारा में लाने की कोशिशें तेज़ की गईं। तौर-तरीक़ा भी लगभग तय हो गया था और हिज़बुल की तरफ़ से गतिविधियाँ लगभग बंद हो गईं थीं। लेकिन हिज़बुल के जिन कमांडरों को कवर दिए जाने की बात थी, उनमें एक को एनकाउंटर में पुलिस ने मार गिराया। इन बातों का थोड़ा सा जिक़्र भारतीय खुफ़िया एजेंसी रॉ के पूर्व मुखिया एएस दुल्लत ने अपनी किताब ‘द कश्मीर : वाजपेयी ईयर्स’ में भी किया है। ससंद पर हमला भी इसी दौरान हुआ और इसके बाद हुआ सेना का सीमाओं पर जमावड़ा। लग रहा था कि अब युद्ध छिड़ा, तब युद्ध छिड़ा। लेकिन इससे कश्मीर के हालात नहीं सुधरे।2002 का विधानसभा चुनाव जीते मुफ़्ती
इस सबके बीच, 2002 के विधानसभा चुनाव हुए। मुफ़्ती इस विधानसभा चुनाव में कश्मीर की आवाज़ बनकर उभरे। फ़ारूक़ अब्दुल्ला का पूरा कुनबा चुनाव हार गया। और सिर्फ़ यह अकेली बात काफ़ी थी लोगों का सरकार में भरोसा वापस लौटाने के लिए। मुफ़्ती कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बने। मुझे वह नज़ारा याद है जब कांग्रेस का समर्थन लेकर मुफ़्ती दिल्ली से श्रीनगर आए थे। उनका स्वागत जिस तरह से हुआ था, उससे साफ़ था कि अब कश्मीर की राह बदल रही है।मुफ़्ती ने लागू की हीलिंग टच पॉलिसी
मुख्यमंत्री बनने के बाद मुफ़्ती ने हीलिंग टच पॉलिसी लागू की। उस समय जम्मू-कश्मीर में जिस सरकार की अगुवाई मुफ़्ती कर रहे थे, वह कांग्रेस व पीडीपी के गठबंधन की सरकार थी और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार थी। मुफ़्ती ने हीलिंग टच पॉलिसी के तहत उन लोगों को रिहा करने का एलान किया जो चार साल से जेल में बंद हैं, लेकिन उनके ख़िलाफ़ कोई आरोप दाख़िल ही नहीं हुए। कश्मीर में उस समय हज़ारों ऐसे लोग 4 साल से ज़्यादा समय से जेलों में बंद थे। पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट के तहत उन पर कोई चार्जशीट दाख़िल नहीं हुई थी।
निर्दोषों को छोड़ना चाहते थे मुफ़्ती
मुफ़्ती का तर्क था कि हो सकता है कि इसमें कुछ वैसे लोग भी छूट जाएँ जो वाक़ई में आतंकी गतिविधियों में लिप्त थे। लेकिन बाक़ी लोगों का क्या कुसूर जिनको आतंकी बताकर पुलिस ने जेल में ठूंस दिया। मुफ़्ती का मानना था कि जो निर्दोष 4 साल जेल में बंद रहेगा, वह क्या कभी हम पर भरोसा कर सकेगा? नहीं न! ग़लती किसकी है, हमारे प्रशासन की, जो आतंकी गतिविधियों में संलिप्त लोगों पर भी 4-4 साल में चार्जशीट नहीं दाख़िल कर पा रहा है। मुफ़्ती के मुताबिक़, हमारे प्रशासन की लेट-लतीफी या स्वार्थपरक वर्किंग की सजा निर्दोष क्यों भुगतें? निर्दोष जेल में बंद रहेंगे तो अलगाववाद बढ़ता ही रहेगा।
मुफ़्ती की नीतियों का असर हुआ और कश्मीर लगभग सामान्य हो गया। अलगाववादियों की ज़मीन ग़ायब होने लगी थी। बिजली बिल माफ़ कराने के लिए हुए प्रदर्शन में शब्बीर शाह के शामिल होने पर मुफ्ती कहा करते थे कि देखो कश्मीर का मंडेला बिजली बिल माफ़ करा रहा है।
ज़मीन देने पर हुआ था हंगामा
अलगाववादियों को पहला मौक़ा मिला 2008 में सरकार के एक विधेयक को लेकर। अलगाववादियों ने विधेयक को लेकर पारिस्थितिकी संतुलन बिगाड़ने के आरोप के साथ हल्ला मचाना शुरू कर दिया। इस विधेयक में सोनमर्ग के पास कुछ ज़मीन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को देने का प्रावधान किया गया था। उस समय पीडीपी के समर्थन से ग़ुलाम नबी आज़ाद राज्य के मुख्यमंत्री थे। पीडीपी ने इस इश्यू को पकड़ लिया। हालात यहाँ तक पहुँचे कि आज़ाद को इस्तीफ़ा देना पड़ा।
- 2010 में स्टोन पेल्टिंग यानी पत्थरबाज़ी की घटनाओं पर भी पीडीपी की खू़ब आलोचना हुई। लेकिन कश्मीर में माहौल नहीं बिगड़ा। माहौल बिगड़ना शुरू हुआ, अफ़जल गुरू की फांसी के बाद और फिर आया बुरहान वानी। यहाँ से पत्थरबाज़ी कश्मीरियों के लिए राजनीतिक औजार बन गई।
वानी की मौत के बाद बिगड़े हालात
बुरहान वानी की मौत के बाद कश्मीर में जैसा उबाल आया, वैसा आतंकवाद की शुरुआत में भी नहीं देखा गया। भारतीय खुफ़िया एजेंसी रॉ के पूर्व मुखिया एएस दुल्लत ने मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि बुरहान की मौत के बाद के महीनों में कश्मीर में जो स्थितियाँ बनीं, वे 1989 में आतंकवाद-अलगाववाद के समय के मुक़ाबले भी बहुत ख़राब हैं।
जेल में डाल दिए गए 1500 नौजवान
नवंबर 2016 के अपने भाषण में एएस दुल्लत ने कहा था कि बुरहान वानी की मौत के बाद 4 माह में पत्थरबाज़ी की कई घटनाएँ हुईं और इन मामलों में क़रीब 1500 कश्मीरी नौजवान जेल में डाल दिए गए।
- रॉ के पूर्व मुखिया एएस दुल्लत ने कहा था, ‘बुरहान वानी भी पहले पत्थरबाज़ी ही करता था, बाद में वह आतंकी बन गया, हमें इस पर सोचना चाहिए।’ हमने इस पर नहीं सोचा और आज हालात भयावह हैं। पुलवामा के हमले को भले ही जैश-ए-मुहम्मद ने प्लान कराया हो लेकिन इसको अंजाम दिया पुलवामा के ही युवक आदिल अहमद डार ने।
क्या कश्मीर हमारा साथ देगा?
1965 में पाकिस्तान ने जब भारत के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था, तब उसे पूरा विश्वास था कि कश्मीर के लोग पाकिस्तानी फ़ौज़ का साथ देंगे। लेकिन हुआ इसके ठीक उलट और इसीलिए पाकिस्तान को उस लड़ाई में मुँह की खानी पड़ी। लेकिन यदि आज युद्ध की स्थितियाँ बनीं तो क्या हमारे साथ कश्मीर 1965 जैसा ही बर्ताव करेगा। मूल सवाल यहाँ है। यदि इसको समझ लें और इसको हल कर लें, तब ही चीजें बदल सकती हैं। लेकिन अफसोसजनक बात यह है कि मूल सवाल की चिंता कहीं दिखाई नहीं दे रही।
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