वह राजनीति बदलने आये थे और राजनीति ने ख़ुद उनको ही बदल दिया। अगर आज कोई आम आदमी पार्टी की कहानी लिखना चाहे तो इससे बेहतर टिप्पणी नहीं हो सकती। 2012 में जब आम आदमी पार्टी बनी थी उसका एकमात्र नारा था- 'लोग देश की राजनीति और राजनेताओं से ऊब चुके हैं, उनसे कोई उम्मीद नहीं है, और अब ‘आप’ इस राजनीति को बदलेगी।' पर 2019 आते-आते ‘आप’ हाँफने लगी है और अब उसमें और दूसरी राजनीतिक दलों में कोई फ़र्क़ नहीं रह गया है। वह भी दूसरी पार्टियों जैसी ही हो गयी है, वह भी दूसरे दलों की तरह ही बर्ताव कर रही है। ऐसे में अगर हमारे मित्र और वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम ये कहते हैं कि देखो 'कितना बदल गया इंसान' तो किसी को बुरा नहीं मानना चाहिये। अजीत कुछ ज़्यादा ही तल्ख़ हैं। पर यह तल्ख़ी सिर्फ़ उनकी नहीं है। दिल्ली और देश के कोने-कोने में बैठा हर वह शख़्स तल्ख़ है जिसने ‘आप’ से यह उम्मीद पाल रखी थी कि अब देश बदलेगा, बदलेगी देश की राजनीति और बदलेगी भ्रष्ट व्यवस्था।

आम आदमी पार्टी यानी 'आप' की राजनीति के मूल में था भ्रष्टाचार विरोध। क्योंकि 'आप' मानती थी कि भ्रष्टाचार ही देश की सारी समस्याओं की जड़ है। अन्ना का आंदोलन भी लोकपाल की नियुक्ति की माँग को लेकर था। अब सरकार में आने के बाद न तो लोकपाल का ज़िक्र है और न ही शरद पवार के साथ बैठने में कोई हिचक है। तो फिर बचा क्या?
2012 के बाद से ‘आप’ की सरकार दिल्ली में दो बार बनी। पहली सरकार सिर्फ़ 49 दिन चली। तब अरविंद केजरीवाल इस्तीफ़ा देकर घर बैठ गये थे। 2015 में दुबारा दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।