वह मेरा दोस्त है। बरसों हमने साथ रिपोर्टिंग की है। जब भी मिलते हैं एक गर्मजोशी से मिलते हैं। पर जब मैं उसे टीवी पर देखता हूँ तो ग़ुस्सा आता है। इसलिये नहीं कि वह जो कर रहा है, उसे कुछ भी कहा जाये पर वह पत्रकारिता नहीं है। ग़ुस्सा इस बात पर आता है कि उसने टीवी पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी को बरबाद कर दिया है। वे उसकी भौंडी नक़ल करते हैं। उससे तेज़ अंदाज़ में चीख़ते हैं और सामने वाले को चीर-फाड़ देने को तत्पर रहते हैं। पर सरकार का कोई प्रतिनिधि आ जाये तो भीगी बिल्ली बन जाते हैं। विपक्ष इन सबके लिये एक आसान खिलौना है जिससे वे मनचाहे तरीक़े से खेलते हैं जैसे बिल्ली अपने शिकार को खाने के पहले उसके साथ खेलती है, शिकार को तड़पता हुआ देख और उत्तेजित होती है। यह नई टीवी की पत्रकारिता है।

पुलवामा में सीआरपीएफ़ के चालीस जवान शहीद हुए। हर एंकर राष्ट्रवाद से बलबला रहा है। वह स्टूडियो में ऐसे बोल रहा है जैसे एक घंटे की डिबेट में पाकिस्तान के सैकड़ों टुकड़े कर देगा। वह एंकर नहीं सुपरमैन है। युद्ध का उन्माद पैदा कर रहा है। पाकिस्तान से बातचीत की बात करने वालों को ‘पाकिस्तान का प्रवक्ता’ घोषित कर रहा है। शांति की वकालत करने वालों को ‘कायर’ और ‘पाकिस्तान का एजेंट’ कह रहा है।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।