पुलवामा का हमला देश की अस्मिता पर गहरी चोट है। पाकिस्तान ने भारत की संप्रभुता पर घाव करने का प्रयास किया है। उसे इस बात की सख़्त से सख़्त सजा मिलनी चाहिए। भारत के बहादुर सैनिकों ने जैश-ए-मुहम्मद के ठिकानों पर हमला कर कड़ा संदेश दे दिया है कि जो भी भारत को कमज़ोर समझने की भूल करेगा वह मिट्टी में मिला दिया जाएगा। इस क़दम के लिये प्रधानमंत्री की तारीफ़ करनी चाहिए। इन हमलों से आतंकवादियों के दिलों में दहशत मची होगी। वे चूज़ों की तरह भाग रहे होंगे। उनके आका बौखलाये होंगे। सीमा पार से हमला करने की नाकाम कोशिश अपनी बौखलाहट और शर्म को छिपाने की भौंडी कोशिश है। भारत पाकिस्तान की धमकियों से डरने वाला नहीं है। वह पाकिस्तान से करगिल समेत चार जंग लड़ चुका है। उसे शत्रुओं के मंसूबों को पानी में मिलाना आता है। ऐसे में पाकिस्तान फिर कोई ऐसी भूल न करे कि उसे 1971 का दंश झेलना पड़े। तब उसके दो टुकड़े हुये थे। वह दो देशों में बँट गया था।
देश अपना काम करेगा। पर क्या देश के नेता राजनीति करने से बाज़ आएँगे? हमारा बहादुर जवान विंग कमांडर अभिनंदन जब पाकिस्तान की गिरफ़्त में थे और वापस भी नहीं आये थे तब उन्हें बजाय वापस लाने के बीजेपी के नेता, कर्नाटक के पूर्व मुख्य मंत्री बी. एस. येदियुरप्पा बेशर्मी की सारी हदें पार कर रहे थे। उन्हें अभिनंदन की फ़िक्र नहीं है। उन्हें देश पर आये संकट की चिंता नहीं है। उन्हें चिंता इस बात की है कि बीजेपी कैसे कर्नाटक में लोकसभा की सारी की सारी सीटें जीते। वे इस बात से ख़ुश हैं कि सर्जिकल स्ट्राइक के बाद देश का माहौल बदल गया है। और अब बीजेपी कर्नाटक में 22 सीटें जीत लेगी। येदियुरप्पा से पहले गुजरात बीजेपी प्रवक्ता भरत पंड्या ने कहा था देश में इस वक्त राष्ट्रवाद की लहर चल रही है और इसे वोटों में तब्दील करने की ज़रूरत है।
देश इन ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयानों को माफ़ नहीं करेगा। यह कौन-सी मानसिकता है जो शहीदों के ताबूत पर राजनीति करती है? ये कौन से लोग हैं जो संकट के समय लाशों पर खड़े होकर वोट गिनने का काम करते हैं?
राजनीति के नंगेपन को उजागर करते हैं ऐसे बयान
ऐसे बयानों पर मुझे अफ़सोस है। ये बयान हमारी राजनीति के नंगेपन को उजागर करते हैं, उसके विद्रूप चेहरे को नोच देते हैं। मुझे मालूम है कि राजनीति है तो राजनीति होगी। भावनाओं को भड़काया जायेगा। लोगों की भावनाओं को भड़का कर वोट की फ़सल काटी जायेगी। मैं इस बात से हैरान रह गया जब, सर्जिकल स्ट्राइक के कुछ घंटों के बाद ही प्रधानमंत्री मोदी को मैंने राजस्थान के चुरु में चुनावी रैली में, बोलते हुये देखा। यह वह वक़्त था जब देश के प्रधानमंत्री को दिल्ली के अपने दफ़्तर में बैठ कर सुरक्षा इंतज़ामों की समीक्षा करनी चाहिये थी। दुनिया के दूसरे राष्ट्राध्यक्षों से बात कर उन्हें अपना पक्ष बताना चाहिये था। प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्रियों के फ़ोन कॉल में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ होता है। ख़ासतौर पर ऐसे प्रधानमंत्री के फ़ोन कॉल का जो ‘पर्सनलाइज़्ड डिप्लोमेसी’ में यक़ीन करता है। प्रधानमंत्री मोदी ने शपथ लेने के बाद से ही दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्षों और राज्याध्यक्षों से निजी स्तर पर संबंध बनाने की कोशिश की। भारतीय राजनीति में जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गाँधी ही ऐसे प्रधानमंत्री रहे हैं।
हैरानी की बात यह है कि मोदी चुनावी सभा में व्यस्त दिखे। हैरानी तब और हुई जब जिस मंच से वह बोल रहे थे उस मंच पर पुलवामा के 40 शहीदों की तसवीर चिपकी थी। ये तसवीरें क्यों? इन तसवीरों का चुनावी रैली में क्या काम?
क्या इन शहीदों के परिवारवालों का दिल नहीं दुखा होगा जब तसवीरों की आड़ में वोट माँगे गये? राजनीति शांति काल का पर्व हो सकता है लेकिन युद्ध शौर्य काल का पर्व है और शौर्य पर्व को ऐसे जाया करना आपराधिक है।
चुनावी रैलियों में सर्जिकल स्ट्राइक पर क्यों ठोक रहे हैं सीना?
हैरानी की बात है कि जब बीजेपी और सरकार में बैठे लोग विपक्ष को यह नसीहत दे रहे थे कि सैनिक कार्रवाई पर राजनीति नहीं होनी चाहिये तब पार्टी के अध्यक्ष चुनावी रैलियों में सर्जिकल स्ट्राइक पर अपना सीना ठोक रहे हैं और यह प्रचार किया जा रहा है कि ‘मोदी है तो मुमकिन है’? क्या थोड़ा और इंतज़ार नहीं किया जाना चाहिये?
- क्या इस पर सवाल नहीं उठना चाहिये कि पुलवामा हमले के समय भी देश के प्रधानमंत्री ने क्यों उत्तराखंड के रुद्रपुर में फ़ोन पर रैली संबोधित की? क्या देश के प्रधानमंत्री को यह शोभा देता है? यह समय था दिल्ली आकर देश को संबोधित करने का, पर उनकी प्राथमिकता में तब भी वोट था, ऐसा उनकी रैली को देखकर साफ़ लगता है।
सेना के नाम पर राजनीति?
दो साल पहले जब सर्जिकल स्ट्राइक हुई थी तब भी यह सवाल उठा था कि सेना के नाम पर राजनीति न हो। तब यूपी समेत पाँच राज्यों में विधानसभा में चुनाव थे। हर रैली में उस पर जम कर अपना सीना ठोका गया था। जगह-जगह पर सर्जिकल स्ट्राइक से जुड़े पोस्टर चिपकाये गये थे। पोस्टर पर लिखा था- ‘हम तुम्हें मारेंगे और ज़रूर मारेंगे। लेकिन वह बंदूक़ भी हमारी होगी, गोली भी हमारी होगी, वक़्त भी हमारा होगा, बस जगह तुम्हारी होगी।’ इन पोस्टरों पर सेना की तसवीर के साथ मोदी की भी तसवीर चस्पा थी। उस वक़्त विपक्ष ने भी राजनीति की थी। सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल खड़े किये गये थे।
- तब इशारों में सरकार से सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत माँगे गये थे। विपक्ष को ऐसा नहीं करना था। पर उसने किया। पर इस बार विपक्ष का रवैया अलग दिख रहा है। उसने साफ़ कहा कि पूरा देश प्रधानमंत्री के साथ है। पर क्या यही बात बीजेपी, सरकार और प्रधानमंत्री के बारे में कही जा सकती है? अफ़सोस, यह नहीं कहा जा सकता है।
लोकसभा चुनाव के ठीक पहले सर्जिकल स्ट्राइक 2 के नाम पर सीना ठोका जा रहा है। इसकी आड़ में चुनाव जीतना सबसे अहम हो गया है। क्योंकि पिछले महीनों में मोदी सरकार की लोकप्रियता काफ़ी कम हुई थी। हिंदी भाषी तीन राज्यों में बीजेपी चुनाव हार गयी और यह अटकल लगने लगी कि उनका दुबारा प्रधानमंत्री बनना मुश्किल है। देश को यह तय करना है कि क्या वह शहीदों की चिता पर बीजेपी को वोट माँगने देगी?
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