बात 2009 की है। बीजेपी लोकसभा चुनावों में हार के बाद बेदम पड़ी थी। आरएसएस ने तय कर लिया था कि लालकृष्ण आडवाणी की पीढ़ी को गुड बाय कहने का वक्त आ गया है, और नई पीढ़ी के हाथ में पार्टी की बागडोर सौंपनी चाहिए। तब मनोहर पर्रीकर का नाम उछला था। आईआईटी से पढे़ बेहद ईमानदार नेता की उनकी छवि थी। संघ को लग रहा था कि गोवा का यह पूर्व मुख्यमंत्री बीजेपी की स्टीरियो टाइप इमेज को तोड़ेगा और बदलते समाज से उसे जोड़ेगा। नई ऊर्जा और नए तेवर की तलाश में पार्टी के लिए पर्रीकर बिल्कुल फिट थे। लेकिन उनके एक छोटे-से बयान ने सब गुड़-गोबर कर दिया।

मनोहर पर्रीकर संघ के थे, लेकिन उनमें वह कट्टरता नहीं दिखती थी, जो कई अन्य में दिखाई देती है। एक मायने में वह वाजपेयी और मोदी का मिश्रण थे। उनमें वाजपेयी जैसा सबको साथ लेकर चलने का हुनर और मोदी जैसी राजनीतिक चतुराई भी थी।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।