आख़िरकार लालकृष्ण आडवाणी का टिकट कट ही गया। गुरुवार की शाम एक समय उनके चेले रहे जे. पी. नड्डा ने जब 182 नामों का एलान किया तो उसमें लालकृष्ण आडवाणी का नाम नहीं था। आडवाणी गाँधीनगर से चुनाव लड़ा करते थे। अब उनकी जगह पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह चुनाव लड़ेंगे। इसके साथ ही भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार में आडवाणी युग का औपचारिक तौर पर पटाक्षेप हो गया। वह अब उम्र के उस पड़ाव पर हैं, जहाँ पार्टी उनमें अपना भविष्य नहीं देख सकती।

क्या आडवाणी को एक ऐसे शख़्स के रूप में याद किया जाएगा जो उम्र भर अटल बिहारी वाजपेयी के नंबर दो रहे? ऐसे नेता के तौर पर याद किया जाएगा जिन्होंने नरेंद्र मोदी के राजनीतिक कैरियर की असमय मौत को टाल दिया था? या फिर एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर याद किए जाएँगे जो बाद के दिनों में एक समय के अपने चेले नरेंद्र मोदी के सामने हाथ जोड़े खड़े रहते थे और मोदी उनकी अनदेखी कर आगे बढ़ जाते थे?
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।