मंत्रिमंडल का विस्तार तो केंद्र में हुआ लेकिन उबाल बिहार की सियासत में आया हुआ है। बिहार में एनडीए के मुखिया और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर सवाल उठ रहे हैं तो दूसरी तरफ़ लोक जनशक्ति पार्टी की विरासत पर पशुपति कुमार पारस की दावेदारी मज़बूत हुई है।
चिराग पासवान बिहार में आशीर्वाद यात्रा पर निकले थे। गाड़ियों का काफिला तो उनके साथ था लेकिन पटना की सड़कों पर होर्डिंग-पोस्टर में पारस छाए हुए हैं। आशीर्वाद यात्रा में कार्यकर्ताओं का उत्साह तब और फीका हुआ जब दिल्ली हाई कोर्ट ने उनकी याचिका को खारिज कर दिया। जाहिर है कि क़ानूनी जंग की पहली बाजी उनके हाथ नहीं रही और संसद से लेकर अदालत के सारे पांसे तो पारस के पक्ष में दिखाई दे रहे हैं।
दिलचस्प यह है कि पटना में पारस के पोस्टरों में चिराग के राम यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तसवीर भी है और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भी। इन होर्डिंगों व पोस्टरों से बिहार की सियासत को भी समझा जा सकता है और लोक जनशक्ति पार्टी की विरासत की जंग को भी। वैसे दिल्ली हाई कोर्ट में पारस को संसदीय दल का नेता बनाए जाने को चुनौती देने वाली याचिका खारिज होते ही चिराग पासवान ने अपनी आशीर्वाद यात्रा को बीच में ही रोक दिया और दिल्ली के लिए रवाना हो गए। दिल्ली में अपने साथियों से वे राय-मशविरा कर आगे की रणनीति तय करेंगे।
चिराग पासवान और पशुपति पारस के बीच चल रही रस्साकशी और केंद्रीय मंत्रिमंडल विस्तार के बाद सियासी गलियारे में नीतीश कुमार पर सवाल खड़े हो रहे हैं। नीतीश कुमार ने 2019 में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने से मना कर दिया था। तब बीजेपी ने जदयू कोटे से एक मंत्री बनाने की पेशकश की थी लेकिन तब के जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार ने सांकेतिक तौर पर नरेंद्र मोदी सरकार में शामिल होने से मना कर दिया था।
नीतीश कुमार का तब मानना था कि सांकेतिक रूप से सरकार में शामिल होने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन क़रीब दो साल बाद आख़िर क्या कारण है कि जदयू अब एक मंत्री बनने पर राज़ी हो गया। इसे लेकर नीतीश कुमार पर भी सवाल उठ रहे हैं और पार्टी पर भी। सवाल उठने की वजह भी है।
दरअसल, पिछले विधानसभा चुनाव के बाद विपक्ष के निशाने पर हैं नीतीश कुमार और जदयू। सीटों की बात की जाए तो नीतीश कुमार की पार्टी तीसरे नंबर पर पहुँच गई। जाहिर है कि इससे जदयू पर भी दबाव बना और नीतीश कुमार पर भी।
दबाव भीतरी भी था और बाहरी भी। बाहरी दबाव विपक्ष का था और भीतरी दबाव सहयोगी भाजपा का। केंद्रीय मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल में जदयू कोटे से सिर्फ़ एक मंत्री बनाए जाने को इसी दबाव से जोड़ कर देखने की कोशिश हो रही है।
कहा गया कि नीतीश कुमार आरसीपी सिंह के मंत्री बनने से ख़ुश नहीं हैं। ख़ूब सुर्खियाँ लगीं। संबंधों की पड़ताल कई-कई कोण से किए गए। संबंधों की पड़ताल के बीच दबाव की बात बार-बार उछाली गई और कहा गया कि नीतीश अब बिहार में बड़े भाई की भूमिका में नहीं हैं। लेकिन जो लोग नीतीश कुमार और उनकी सियासत को बेहतर तरीक़े से समझते हैं वे जानते हैं कि नीतीश कुमार भले मिट्टी में मिल जाने के अपने बयान को याद न रखें लेकिन वे दबाव की राजनीति तो करते हैं, दबाव में आते नहीं हैं। पिछली बार राजद के साथ मिल कर चुनाव लड़ने और सरकार बनाने के बाद राजद से नाता तोड़ने की वजह भी लालू यादव का यही दबाव बना था।
सियासी तौर पर इसे लेकर कई तरह की बातें कहीं और गढ़ी गईं लेकिन सच तो यह है कि नीतीश कुमार पर लालू यादव का दबाव था। लालू यादव कुछ ऐसे फ़ैसले भी सरकार से करवाना चाहते थे जो नीतीश कुमार को मंजूर नहीं था। बाद की सारी कहानी तो बनाई या बनवाई गई लेकिन तब के महागठबंधन का गांठ नीतीश कुमार ने इसीलिए खोला और अलग हुए क्योंकि लालू यादव उन पर अनचाहा दबाव बनाने में लगे थे और नीतीश कुमार को यह पसंद नहीं आया। इसलिए मुख्यमंत्री के तौर पर वे भाजपा के दबाव में हैं ऐसा कहना सही नहीं है। भाजपा का दबाव अगर होता तो वह अपने एजंडे को लागू करने के लिए हर मुमकिन कोशिश करती लेकिन बीजेपी अब तक ऐसा नहीं कर पाई है।
बीजेपी की परेशानी यही है कि नीतीश उसके एजंडे की राह में तन कर खड़े हैं। कई ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें बीजेपी बिहार में लागू करना चाहती है लेकिन नीतीश कुमार इसके लिए किसी भी क़ीमत पर तैयार नहीं हैं।
बिहार में सरकार और सत्ता में रहने के लिए बीजेपी का बड़ा चेहरा नीतीश कुमार ही हैं। उनके बिना वह बिहार में हाशिये पर आ सकती है। बीजेपी इस सच को जानती है इसलिए वह नीतीश कुमार पर बहुत ज़्यादा दबाव नहीं बना पाती है।
केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार को लेकर भले कहानियाँ कुछ भी कही जा रही हों या सियासी तौर पर अपने-अपने तरीक़े से इसे देखा जा रहा है लेकिन सच यह है कि नीतीश कुमार ने अपनी सियासी बाज़ीगरी यहाँ भी दिखाई है। विधानसभा चुनाव में जदयू को बड़ा नुक़सान चिराग पासवान ने पहुँचाया था। नीतीश कुमार पर चिराग ने चुनाव के दौरान ख़ूब हमले किए और यह भी कहा था कि सत्ता में आने के बाद वे नीतीश कुमार को जेल भिजवाएंगे। नीतीश कुमार इसे भूले नहीं। सरकार संभालने के बाद उनकी प्राथमिकता लोजपा को हाशिए पर लाने की रही। सियासत में इसे ग़लत भी नहीं कहा जा सकता। चिराग ने उन्हें और उनकी पार्टी को नुक़सान पहुँचाया था।
बारी अब नीतीश कुमार की थी। पहले उन्होंने लोजपा के इकलौते विधायक को तोड़ा और फिर पार्टी को भी। लेकिन लोजपा की टूट में बड़ी भूमिका बीजेपी ने निभाई। सांसद पशुपति कुमार पारस और उनके साथियों को चिराग के ख़िलाफ़ खड़ा किया गया और फिर सियासी तौर पर मात देकर चिराग को अकेला कर दिया गया। मंत्रिमंडल के विस्तार में बीजेपी ने अपना खेल खेला और नीतीश कुमार को सियासी तौर पर ब्लैकमेल किया। नीतीश कुमार ने बड़े लक्ष्य को सामने रखा और छोटे लक्ष्य को फ़िलहाल किनारे कर दिया। बड़ा लक्ष्य चिराग पासवान की सियासी ज़मीन को तंग करना था। उन्होंने ऐसा ही किया। बीजेपी नीतीश की मंशा को भांप चुकी थी। इसलिए उसने इसका फ़ायदा उठाया। नीतीश कुमार भी समझ रहे थे कि केंद्र में मंत्रियों की तादाद तो फिर बढ़ाई जा सकती है लेकिन अभी लक्ष्य चिराग हैं तो उन्हें निपटाने के लिए बीजेपी को सियासी ब्लैकमेल करने दिया उन्होंने।
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