जयप्रकाश नारायण यानी जेपी और डॉ. राममनोहर लोहिया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दो अप्रतिम नायक और आज़ादी के बाद भारतीय समाजवादी आंदोलन के महानायक। लोहिया ने अपने विशिष्ट चिंतन से समाजवादी आंदोलन के भारतीय स्वरूप को गढ़ा और हर क़िस्म के सामाजिक-राजनीतिक अन्याय के ख़िलाफ़ अलख जगाया, तो राजनीति से मोहभंग के शिकार होकर सर्वोदयी हो चुके जेपी ने वक़्त की पुकार सुनकर राजनीति में वापसी करते हुए भ्रष्टाचार और तानाशाही के ख़िलाफ़ देशव्यापी संघर्ष को नेतृत्व प्रदान कर लोकतंत्र को बहाल कराया।

अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज़्यादा बुरे दौर से गुज़र रहा है।
आज देश के हालात जेपी और लोहिया के समय से भी ज़्यादा विकट और चुनौतीपूर्ण हैं लेकिन हमारे बीच न तो जेपी और लोहिया हैं और न ही उनके जैसा कोई प्रेरक व्यक्तित्व। हाँ, दोनों के नामलेवा या उनकी विरासत पर दावा करने वाले दर्जनभर राजनीतिक दल ज़रूर हैं, लेकिन उनमें से किसी एक का भी जेपी और लोहिया के कर्म या विचार से कोई सरोकार नहीं है। 11 अक्टूबर को जेपी का जन्मदिन और 12 अक्टूबर को लोहिया का निर्वाण दिवस। सवाल है कि आज के वक़्त में जेपी और लोहिया को क्यों याद करें और कैसे करें?
आज़ादी के बाद पहले आम चुनाव में कांग्रेस के मुक़ाबले समाजवादी खेमे को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था। दूसरे नंबर पर कम्युनिस्ट रहे थे। समाजवादियों का नेतृत्व कर रहे जयप्रकाश को चुनाव नतीजों ने बेहद निराश किया और कुछ समय बाद वह सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर विनोबा के साथ सर्वोदय और भूदान आंदोलन से जुड़ गए थे। इसके बाद 1957 और 1962 के आमचुनाव में भी कांग्रेस का दबदबा बरकरार रहा। राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर कांग्रेस को अजेय माना जाने लगा, लेकिन 1967 आते-आते स्थितियाँ बदल गईं।