‘लोकनायक’ का आज यानी 11 अक्टूबर को जन्मदिन है। जेपी को आज किस रूप में याद किया जाए और यदि वह इस वक़्त के नेताओं को देख रहे होते तो उनकी प्रतिक्रिया क्या होती?
संपूर्ण क्रांति का नारा देने वाले जयप्रकाश नारायण उर्फ जेपी की आज जयंती है। इंदिरा गांधी की हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले जेपी की जयंती पर पढ़िए यह लेख।
क्या जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जनता के प्रति अपनी पूरी जवाबदेही निभा पा रहे हैं? यदि जब राजनीति जनता की नज़र में बेपरवाह और पटरी से उतरती नज़र आए तो क्या होना चाहिए? पढ़िए जेपी ने क्या तरकीब सुझायी है।
जयप्रकाश नारायण को 1970 में इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि लोग उनको किस कदर चाहते थे? उनकी पुण्यतिथि के मौके पर पढ़िए उनके गाँव के दौरे की कहानी।
जेपी यूनिवर्सिटी के सिलेबस में जेपी और लोहिया को अब अगले सत्र फिर से फिर से शामिल किया जाएगा। दोनों समाजवादी नेताओं से जुड़े अध्याय हटाने पर विवाद के बाद विश्वविद्यालय ने यह फ़ैसला लिया है।
जय प्रकाश नारायण विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से जेपी और लोहिया को हटाए जाने का विवाद सामने आया है। नीतीश ने इस पर नाराज़गी जताई है। जाति जनगणना, पेगासस स्पाइवेयर जैसे मुद्दों पर बीजेपी-जेडीयू में फिर विवाद बढ़ेगा?
लोक नायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) की पुण्यतिथि के तीन दिन बाद यानी ग्यारह अक्टूबर को उनकी जयंती है। सोचा जा सकता है कि वे आज अगर हमारे बीच होते तो क्या कर रहे होते!
45 साल पहले आपातकाल के दौरान जब जेपी का नज़रबंदी आदेश निकला था तब प्रेस में खलबली मची थी। प्रेस सेंसरशिप भी लागू हो चुकी थी। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या होने वाला है।
मैं ‘सम्पूर्ण क्रांति दिवस’ 5 जून 1974 के उस ऐतिहासिक दृश्य का स्मरण कर रहा हूँ जो पटना के प्रसिद्ध गाँधी मैदान में उपस्थित हुआ था और मैं जयप्रकाशजी के साथ मंच के निकट से ही उस क्रांति की शुरुआत देख रहा था।
‘संपूर्ण क्रांति : सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ पाँच जून, 1974 को पटना के गाँधी मैदान में विशाल जन सैलाब के समक्ष जयप्रकाश नारायण ने जब यह नारा दिया।
लोक नायक जयप्रकाश नारायण ने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ छात्र आंदोलन का नेतृत्व किया। इंदिरा गाँधी के आपातकाल को उन्होंने चुनौती दी। क्या आज के दौर में लोकतंत्र को बचाने वाले ऐसे नेता की ज़रूरत नहीं है? आज भी वैसी ही परिस्थितियाँ नहीं हैं? देखिए शैलेश की रिपोर्ट।
अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज़्यादा बुरे दौर से गुज़र रहा है।