केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में जारी किसानों के आंदोलन को छह महीने पूरे हो चुके हैं। यह आंदोलन न सिर्फ़ मोदी सरकार के कार्यकाल का बल्कि आज़ाद भारत का ऐसा सबसे बड़ा आंदोलन है जो इतने लंबे समय से जारी है। देश के कई राज्यों के किसान तीनों क़ानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर सर्दी, गर्मी और बरसात झेलते हुए दिल्ली की सीमाओं पर धरने पर बैठे हैं। इस दौरान आंदोलन में कई उतार-चढ़ाव आए। आंदोलन के रूप और तेवर में भी बदलाव आते गए लेकिन यह आंदोलन आज भी जारी है।
हालांकि कोरोना वायरस के संक्रमण, गर्मी की मार और खेती संबंधी ज़रूरी कामों में छोटे किसानों की व्यस्तता ने आंदोलन की धार को थोड़ा कमज़ोर किया है, लेकिन इस सबके बावजूद किसानों का हौसला अभी टूटा नहीं है।
आंदोलनकारी किसान संगठनों के संयुक्त मोर्चा ने आंदोलन के छह महीने पूरे होने के मौके पर 26 मई को काला दिवस के रूप में मनाया। इस मौके पर देश के अन्य हिस्सों में किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया। देश के 12 प्रमुख विपक्षी दलों ने भी किसानों के काला दिवस मनाने के आह्वान को अपना समर्थन दिया है। संयुक्त किसान मोर्चा की अपील पर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में किसान दिल्ली की सीमाओं पर आ जुटे हैं।
तो क्या यह माना जाए कि कोरोना की विनाशकारी और दर्दनाक दूसरी लहर के बीच ही किसान आंदोलन की दूसरी लहर शुरू होने वाली है? कोरोना की महामारी ने देशवासियों को कैसी भयावह स्थिति में डाला, यह हम सभी देख रहे हैं। बड़े शहरों में हालात थोड़े सुधरते दिख रहे हैं लेकिन गांवों में कोरोना के फैलते संक्रमण में कोई कमी नहीं आई है। ऐसे में देश के विभिन्न हिस्सों से आए किसानों के जत्थों का राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर जुटना या देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन करना बेहद ख़तरनाक हो सकता है।
गौरतलब है कि कोरोना की दूसरी लहर ने जो भयावह शक्ल अख्तियार की है, उसमें बड़ी भूमिका पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान हुई बड़ी-बड़ी रैलियों, रोड शो तथा उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनावों की भी रही है। जो कसर बाकी रह गई थी वह हरिद्वार में कुंभ के नाम पर करीब एक महीने तक लगातार जुटती रही लाखों लोगों की भीड़ ने पूरी कर दी। कहने की आवश्यकता नहीं कि चुनावी रैलियों के लिए जहां सरकार के इशारे पर काम करने वाला चुनाव आयोग और राजनीतिक दल जिम्मेदार रहे तो कुंभ में जुटी भीड़ के लिए स्पष्ट तौर पर केंद्र और उत्तराखंड सरकार। अब ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर किसान आंदोलन फिर जोर पकड़ता है तो क्या होगा!
हैरानी की बात है कि जिस सुप्रीम कोर्ट ने उस समय कोरोना महामारी का हवाला देते हुए इस मसले पर आश्चर्यजनक सक्रियता दिखाई थी, वह भी अब इस मसले को लेकर पूरी तरह उदासीन बन कर फ़िलहाल गरमी की छुट्टियों पर है।
जनवरी महीने में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश के जरिए केंद्र के बनाए तीनों कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगाई थी और तीन सदस्यों की एक कमेटी बना कर इस मामले में सलाह-मशविरे की प्रक्रिया शुरू कराई थी। हालांकि आंदोलनकारी किसानों ने अपने को इस प्रक्रिया से दूर रखा था, फिर भी देश के दूसरे कुछ किसान संगठनों और कृषि मामलों के जानकारों ने अपनी राय सुप्रीम कोर्ट की कमेटी को दी है। कमेटी भी अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप चुकी है।
अब स्थिति यह है कि न तो सुप्रीम कोर्ट उस रिपोर्ट के आधार कोई सुनवाई कर रहा है और न ही केंद्र सरकार तीनों कानूनों पर लगी रोक हटवाने के लिए प्रयास करती दिख रही है। सवाल है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट और सरकार दोनों किस बात का इंतजार कर रहे हैं?
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सरकार और उसके समर्थक आर्थिक विशेषज्ञों का कहना रहा है कि अगर इन कानूनों पर अमल नहीं हुआ तो 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकेगा। अगर सरकार अपने तय किए गए इस लक्ष्य के प्रति वाक़ई गंभीर है तो उसे अदालत में जाकर अपील करनी चाहिए कि इन कानूनों के अमल पर लगाई गई रोक हटाई जाए। लेकिन सरकार न रोक हटवाने जा रही है और न किसानों का आंदोलन ख़त्म कराने की दिशा में कोई पहल करती नज़र आ रही है।
वैसे किसान आंदोलन के प्रति सरकार के बेपरवाह होने की एक अहम वजह पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मिली हार भी है। इस चुनाव में किसान संगठनों के नेताओं ने भी बंगाल जाकर वहाँ सभाएँ की थीं और लोगों से भाजपा को हराने की अपील की थी। किसान नेताओं ने कहा था कि भाजपा बंगाल में हारेगी तभी वह दिल्ली में किसानों की बात सुनेगी।
तब ऐसा माना भी जा रहा था कि अगर बंगाल सहित पांचों राज्यों के चुनाव नतीजे भाजपा के अनुकूल नहीं आए तो सरकार को किसानों की मांगों के आगे झुकना पड़ेगा। तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा किसान नेताओं के बंगाल जाकर भाजपा को हराने की अपील करने को लेकर नाराज हैं। उन्होंने इस प्रचार को भी अपने लिए एक चुनौती के रूप में लिया है कि बंगाल मे भाजपा हारेगी तो ही किसानों की बात दिल्ली में सुनी जाएगी। ऐसा लग रहा है कि अब सरकार ने जिद ठान ली है कि हम हार गए तब भी किसानों की बात नहीं सुनेंगे। यही वजह है कि सरकार और किसानों के बीच गतिरोध ख़त्म नहीं हो रहा है।
इस प्रकार एक तरफ़ सरकार किसानों के प्रति दुश्मनी का भाव रखते हुए चुपचाप बैठी है तो दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी बनाई कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद भी कोई पहल नहीं की है। सुप्रीम कोर्ट की यह चुप्पी हैरान करने वाली है।
सुप्रीम कोर्ट जब तक कोई फ़ैसला नहीं करता तब तक यथास्थिति बनी रहेगी। अदालत ने क़ानूनों के अमल पर रोक लगाई है और किसान आंदोलन पर बैठे हैं। उन्हें और उनकी खेती को तीनों क़ानूनों से नुक़सान होने का मुद्दा तो अपनी जगह है ही, कोरोना के बढ़ते संक्रमण की वजह से उनकी सेहत और जान ख़तरे में है।
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विपक्षी दलों के नेताओं ने ही नहीं, भाजपा के अपने सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी ने भी कहा है कि सरकार किसानों से बात करे और आंदोलन ख़त्म कराए। उन्होंने तो अपनी पार्टी की सरकार को यह भी बताया है कि कैसे आंदोलन ख़त्म कराया जा सकता है। स्वामी ने कहा कि सरकार किसानों से वादा करे कि जो भी राज्य इस कानून को लागू नहीं करना चाहते हैं, वे इसे लागू नहीं करने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन सरकार का ऐसा कोई इरादा नहीं दिख रहा है। इसके उलट वह तो मामले को और ज्यादा उलझाने और किसानों को चिढ़ाने की दिशा में काम कर रही है। इस सिलसिले में उसने पंजाब और हरियाणा में किसानों को सीधा भुगतान शुरू कर दिया है, जिससे नाराज़गी ही बढ़ रही है। जाहिर है कि सरकार का इरादा मामले का निबटारा कर आंदोलन ख़त्म कराने का नहीं, बल्कि किसानों से टकराव बढ़ाने का है।
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