नहीं याद आता कि उनसे पहली बार कब मिला था पर यह ज़रूर कह सकता हूं कि पहली भेंट में ही उन्होंने दिल जीत लिया था। एकदम बड़े भाई या स्नेह से भरे अभिभावक जैसा बरताव। निश्छल और आत्मीयता से भरपूर। आजकल ऐसा बरताव तो देखने को भी नहीं मिलता।
बयालीस - तैंतालीस साल तो हो ही गए होंगे जब मैं रायपुर में रमेश नैयर जी से मिला था। एक शादी में रायपुर गया था। उन दिनों नई दुनिया में लिखा करता था और राजेंद्र माथुर के निर्देश पर शीघ्र ही सह संपादक के तौर पर वहाँ ज्वाइन करने जा रहा था। वहाँ नैयर जी और देशबंधु के संपादक ललित सुरजन जी की शुभकामनाएँ लेना मेरे लिए आवश्यक था। मैं देशबंधु अख़बार में भी तब बुंदेलखंड की डायरी लिखा करता था। नैयर साब के पास डाक से नई दुनिया पहुँचता था और देशबंधु तो वे पढ़ते ही थे। फिर वे मेरा आलेख पढ़कर चिट्ठी लिखकर अपनी राय प्रकट करते। उनके पत्र हौसला देते थे। फिर जहाँ - जहाँ भी गया, कभी फ़ोन, तो कभी चिट्ठी के ज़रिए संवाद बना रहा।
अपने उसूलों की ख़ातिर उन्होंने कई बार नौकरियाँ छोड़ीं थीं और आर्थिक दबावों का सामना किया था। लेकिन उनकी पीड़ा कभी ज़बान पर नही आई। कुछ कुछ मेरे साथ भी ऐसा ही था। जब भी मैने अपने सरोकारों और सिद्धांतों के लिए इस्तीफ़े दिए तो वे नैयर साब ही थे जो सबसे पहले फ़ोन करके पूछते थे कि भाई घर कैसे चला रहे हो। कोई मदद की ज़रूरत हो तो बताओ। मैं कहता था कि जब तक आपका हाथ सिर पर है तो मुझे चिंता करने की क्या आवश्यकता है? एक उदाहरण बताता हूँ।
मैं उन दिनों एक विख्यात समाचार पत्र में समाचार संपादक था। सितंबर 1991 के अंतिम सप्ताह में प्रख्यात श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी की हत्या छत्तीसगढ़ के पूँजीपतियों ने करा दी। शंकर गुहा नियोगी मेरे मित्र भी थे। इसके बाद मेरे हाथ कई दस्तावेज़ लगे। वे संदेह की सुई सही दिशा में मोड़ते थे। मैनें आशा भाभी ( श्रीमती नियोगी ) से संपर्क किया। संयोग से उनके पास भी कुछ ठोस सुबूत थे।मैने राज्यपाल और पुलिस महानिदेशक को ज्ञापन सौंपने की सलाह दी। उन्होंने ऐसा ही किया। इसके बाद मैने सारे सुबूतों और दस्तावेजों को आधार बनाकर पहले पन्ने की पट्टी ( बॉटम ) छह कॉलम में छाप दी। छपते ही जैसे देश भर में तूफान आ गया।
संवाद समितियों ने मेरी ख़बर को आधार बनाकर देश भर में फैला दिया। एक दिन बाद रात को लगभग ग्यारह बजे उन कंपनियों की ओर से एक जनसंपर्क अधिकारी आए। उनके हाथ में ब्रीफकेस था। उन्होंने खोलकर दिखाया तो ठसाठस नोट भरे थे। उनका कहना था कि मैं अपनी ख़बर का खण्डन छाप दूँ तो यह धन आपके लिए लाया हूँ। मैने ग़ुस्से पर काबू रखते हुए उन्हें दरवाज़ा दिखा दिया। वे बोले ,सोच लीजिए। कंपनियों की पहुंच ऊपर तक है। खण्डन तो छपना ही है। मैने लगभग चीखते हुए कहा कि फिर तो आप जाइए। संपादक और मालिक को यह पैसा दे दीजिए। मैं भी देखता हूँ कि सच ख़बर का खण्डन कैसे छपता है। वे मुस्कुराए। बोले, देखिए। पैसा तो देना ही है। संपादक और मालिक को पाँच लाख रुपए और बढ़ाने पड़ेंगे। मैनें उन्हें फिर एक तरह से निकाल दिया। उस रात मूसलाधार बरसात हो रही थी और वे भीगते हुए नोटों भरा ब्रीफकेस लेकर अपना सा मुंह लेकर लौट गए।
अगले दिन दफ़्तर पहुँचा तो मालिक यानी प्रबंध संपादक और संपादक ने बुलाया और बड़े प्रेम से ख़बर का खण्डन छापने का अनुरोध किया। मैंने उन्हें रात का किस्सा बयान किया और बताया कि पूँजीपतियों का पक्ष तो छापने के लिए तैयार हूँ। यह पत्रकारिता का तक़ाज़ा है। पर खंडन, वह भी अपनी खबर का जिसके बारे में सौ फ़ीसदी आश्वस्त हूं, कैसे छाप सकता हूँ। प्रबंध संपादक मुस्कुराए। बोले, वे लोग अख़बार को विज्ञापनों से मदद के लिए तैयार हैं। आप जानते हैं कि आजकल हम आप लोगों की वेतन कितनी मुश्किल से दे पा रहे हैं। अख़बार का बंटवारा हुआ है। पैसा उलझा हुआ है। मैं मुस्कुराया। रात वाले दूत की बात सच साबित हो रही थी। इसके बाद संपादक जी से मेरे कुछ गरमागरम संवाद हुए। वे पूँजीपतियों के दलाल की भाषा बोल रहे थे।
अंततः मैने कहा, मेरे रहते तो खंडन नहीं छप सकता और उठकर अपनी टेबल पर आ गया। अगले दिन से संपादक ने दफ़्तर आना बंद कर दिया। उन्होंने कहा कि जब राजेश बादल की खबर का खण्डन प्रकाशित होगा, मैं उसके बाद ही कार्यालय आऊंगा। उनकी शर्त यह भी थी कि मुझे ग़लत समाचार प्रकाशित करने के लिए अख़बार को माफ़ीनामा लिखकर देना होगा। माफीनामे को पूरे संपादकीय विभाग की बैठक में पढ़कर सुनाया जाएगा। कोई भी पत्रकार ऐसी ऊटपटांग शर्त को कैसे स्वीकार कर सकता था।
मेरे खिलाफ दोनों शिखर पुरुष मिल गए थे। मेरे लिए इतना इशारा काफी था। फिर भी मैं जाता रहा और संपादक घर बैठे आराम फरमाते रहे। क़रीब एक सप्ताह बीत गया। मैं संपादक की गैर हाज़िरी में अखबार निकालता रहा। उधर खंडन नहीं छपने से पूँजीपतियों का गिरोह परेशान था। एक दिन प्रबंध संपादक ने बुलाया और कहा, राजेश! मैं तुमको खोना नही चाहता और उन संपादक के बिना समाचार पत्र चल नहीं सकता। ऐसा कब तक चलेगा? मैंने उनसे कहा, मैं कल सुबह आपके घर आता हूँ और बात करता हूँ। मैंने फ़ैसला कर लिया था।
अगले दिन आठ अक्टूबर 1991 को सुबह मैं उनके घर गया और 9.20 बजे इस्तीफ़ा सौंप दिया। उन्होंने रोकने का बहुत प्रयास या अभिनय किया पर जहाँ पैसा, विवेक और सिद्धांतों पर हावी हो जाए, वहाँ काम करने का कोई मतलब नहीं था। बाहर निकलते समय लोहे का दरवाज़ा बंद करते हुए मेरे कुछ आँसू गिरे। धुंधलाई आंखों से स्कूटर स्टार्ट करके मैं घर आ गया। मैं सड़क पर आ गया था।
मैं इस अख़बार में आने से पहले राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स में मुख्य उप संपादक था। अब सोच रहा था कि कौन सी घड़ी में और क्यों नवभारत टाइम्स से त्यागपत्र दिया था। उस समय प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर ने तो अनुमति दे दी थी लेकिन कार्यकारी संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह ने साफ साफ कहा था कि जाना है तो जाओ, मगर तुम्हारा यह फैसला ठीक नही है। मैं फिर भी अपने परिवार की स्थितियों के कारण भोपाल चला गया था। नभाटा से मुझे प्रोविडेंट फंड का कुछ पैसा मिला था। उससे मैनें पुराना स्कूटर बेचकर फंड के पैसे मिलाकर नया स्कूटर ख़रीद लिया था। अब मैं ठन ठन गोपाल था।
उस दिन के बाद मेरे दुर्दिन शुरू हो गए। मेरा फ़ोन छह सौ रुपए बिल नहीं भरने के कारण काट दिया गया। स्कूटर के पेट्रोल तक के लिए पैसे नहीं थे। यहां तक कि सब्ज़ी खरीदने के लाले पड़ गए। अकेला रहता था। खाना ख़ुद बनाता था। पत्रकार वार्ताओं में जाता था। चार-पाँच किलोमीटर पैदल चलकर। उन दिनों सारी पत्रकार वार्ताएँ पत्रकार भवन में हुआ करती थीं। किसी को पता नहीं चलता था कि मैं पैदल आता हूं। उस दौर का संघर्ष याद करके आज भी रूह काँप जाती है।
रमेश नैयर बने शुभचिंतक
उस दौर में रमेश नैयर जी बड़ा संबल बने। फ़ोन कटा था मगर आने वाले कॉल तो आ ही सकते थे। नैयर जी को न जाने कैसे इस पूरी कहानी की भनक लग गई। फिर तो प्रायः रोज़ ही उनके फ़ोन आने लगे। वे मेरा आत्मविश्वास बढ़ाते। मैं सोचा करता था कि ईश्वर को किसी ने नहीं देखा। लेकिन अगर उसका कोई अंश है तो वह नैयर जी में है। राजेंद्र माथुर जी के असामयिक निधन के बाद वे मेरे सबसे बड़े शुभ चिंतक बन गए थे। याद कर सकता हूँ कि उस दौर में भोपाल के बड़े नामी गिरामी पत्रकारों ने मुझसे मिलना बंद कर दिया था। जिनका मैं आदर करता था, वे बेरुखी दिखाने लगे थे। उन पत्रकारों के प्रति मेरे मन में आज भी कोई श्रद्धा या आदर नहीं है।
अब मैं केवल अधिक आयु के कारण उनका सम्मान करता हूँ। उनमें से अधिकतर को उन पूँजीपतियों ने ख़रीद लिया था। वे उस रिश्वतख़ोर संपादक के साथ मंच साझा करते थे। सब उसकी हक़ीक़त जानते थे। मगर मुझे कोई दुःख नहीं था। दुःख था तो यही कि जिन लोगों का पत्रकारिता के कारण सम्मान करता था, उनके मुखौटे उतर गए थे।
बहरहाल! रमेश नैयर फरिश्ते की तरह मेरी ज़िन्दगी में आए थे। वे उन दिनों संडे ऑब्जर्वर, हिंदी में सहायक संपादक थे। उनके अलावा राजीव शुक्ला भी वहां थे। लगभग दस बारह बरस पहले राजीव शुक्ला और मैं रविवार में रिपोर्टिंग कर चुके थे। एक दिन मैंने देखा कि मेरी संघर्ष समाचार कथा उसमें प्रकाशित हुई थी। उसमें हवाला दिया गया था कि मुझे कैसे और क्यों अख़बार की नौकरी से इस्तीफ़ा देना पड़ा था। एक दिन नैयर जी का सुबह सुबह फ़ोन आया कि आप नियमित रूप से संडे ऑब्जर्वर के लिए लिखिए।
हम आपको उतना पारिश्रमिक तो दे ही देंगे, जितनी वेतन पिछले अखबार में थी। मेरी बांछें खिल गई। मेरा पुनर्जन्म हुआ था। संडे ऑब्ज़र्वर से हर महीने पहले सप्ताह में पैसे आने लगे थे। मेरी गाड़ी चलने लगी। नैयर जी इसके बाद मेरी प्रगति की हर गाथा पर नज़र रखते थे। मैं उन्हें अपनी प्रत्येक बात बताया करता था। जब तक वे संडे ऑब्ज़र्वर में रहे, मैं लिखता रहा। संडे ऑब्जर्वर के बंद होने तक।
बाद में मेरी नियति ने करवट बदली और दो तीन साल दिन रात एक करने के बाद मैं अपने सहकर्मियों को क़रीब लाख रूपए का पेशेवर पारिश्रमिक देने में सक्षम था। खुद भी मैं लाख रुपए तो कमा ही लेता था। मेरी स्थिति देखकर नैयर साब प्रसन्न थे। उनके चेहरे पर ख़ुशी देखकर जो अहसास होता था, मैं नहीं बता सकता। इसके बाद जब भी रायपुर गया, उनसे मिलने का कोई अवसर नहीं गँवाया। सात आठ बरस पहले उन्होंने अपनी किताब - ‘धूप के शामियाने’ भेंट की थी।
भारत विभाजन के समय उनके परिवार के शरणार्थी की तरह पाकिस्तान से आने की दास्तान सुनकर मैं हिल गया था। वे किन मुसीबतों में पले बढ़े थे, यह उनके मुंह से सुनता था तो लगता था कि मेरा संघर्ष तो कुछ भी नही है।
आज नैयर जी की देह हमारे साथ नहीं है। पर वे हमेशा मेरे दिल में धड़कते रहेंगे। मेरी उनको श्रद्धांजलि।
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