पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जीत के बाद ममता बनर्जी अलग अंदाज में हैं। वे अपने प्रदेश के पत्रकारों से कह रही हैं कि अगर उन्हें विज्ञापन चाहिए तो सरकार के पक्ष में लिखें। इतना ही नहीं, वे उनसे कहती हैं कि ज़िला मजिस्ट्रेट के दफ्तर में पॉजिटिव खबरों वाले अंक जमा करें। फिर उन्हें विज्ञापन मिलेंगे। यानी यदि आप सरकार की आलोचना करते हैं तो सरकार से मदद की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
ममता ने यह बात बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस में कही। उनका यह व्यवहार मुझे आपातकाल के दिनों की याद दिला रहा है।
आपातकाल के दिन
उन दिनों सरकार के पक्ष में ही लिखना होता था और ज़िला कलेक्टर कार्यालय में समाचार पत्र की प्रतियाँ जमा करनी होती थीं। उसके बाद ही सरकारी विज्ञापन मिला करते थे। ममता अपने प्रदेश में यही व्यवस्था लागू कर रही हैं।
इसका अर्थ यह है कि आँचलिक स्तर पर ज़िला कलेक्टर ही पत्रकार को प्रमाणपत्र देगा। यह अनुचित है। ममता को याद रखना चाहिए कि इंदिरा गांधी ने भी आपातकाल के बाद अपनी भूल का अहसास किया था और माफ़ी माँगी थी।
अलोकतांत्रिक!
ममता बनर्जी की यह मंशा जनकल्याणकारी राज्य की लोकतांत्रिक भावना के अनुरूप नहीं है। सरकार सिर्फ तारीफ पसंद करे और आलोचकों से किनारा करे, यह कतई जायज़ नहीं है। हम सब जानते हैं कि ममता बनर्जी के अंदर सब कुछ लोकतांत्रिक नहीं है। उनके भीतर एक अधिनायक नेत्री बैठी हुई है। हालांकि अगर वह नहीं होती तो बंगाल में चुनाव जीतना उनके लिए शायद संभव नहीं होता। मगर वे भूल जाती हैं कि जम्हूरियत में सारे ज़िम्मेदार प्रतिष्ठानों को एक-दूसरे के प्रति सहयोग का भाव होना चाहिए।
अभिव्यक्ति की आज़ादी इकतरफा नहीं हो सकती। यदि पत्रकारिता सत्ता प्रतिष्ठान की तारीफ की राह पर चल पड़े और आलोचना बंद कर दे तो समझ लीजिए सत्ता दल का अंत निकट है।
'निंदक नियरे राखिए!'
पत्रकारिता समय-समय पर आंखें खोलने या सरकार की असफलताओं को उजागर करती है। यदि उसने यह काम रोक दिया तो हुक़ूमत कर रहे राजनेता को पता भी नहीं चलेगा कि कब उसके पैरों के नीचे से जाजम खिसक गई। ममता बनर्जी के साथ यह शुरुआत हो चुकी है।
पत्रकारिता दरअसल उस आलोचक की तरह है, जो अंततः देश और सरकार के भले के लिए काम करता है। कबीरदास ने सदियों पहले कहा था, ‘निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छबाय,बिन पानी, साबुन बिना,निर्मल करे सुभाय।’ यानी जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिक से अधिक करीब रखना चाहिए, क्योंकि वह बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बताकर हमारे स्वभाव को साफ और निर्मल कर देता है। किसी भी निर्वाचित सरकार को लोकतंत्र में इन पंक्तियों पर अमल करना चाहिए। उसे अपने आलोचकों की जानकारी भी होनी चाहिए, भले ही प्रशंसकों की सूचना नहीं हो।
इतना ही नहीं, उसे अपने आलोचकों या निंदकों के साथ पवित्र रिश्ता रखना चाहिए। आजकल किसको क्या पड़ी है, जो आलोचना करे। पत्रकारिता के पवित्र काम में आलोचना अनिवार्य हिस्सा है। इन दिनों व्यवस्था के दोष निकालने वाले पत्रकारों के साथ सरकारें बदले की भावना से काम कर रही हैं। यह उनकी नासमझी और अपरिपक्वता की निशानी है। किसी भी अधिनायकवादी प्रवृति और बदले की कार्रवाई करने वाली हुकूमत अथवा राजनेता-नेत्री से डरने की आवश्यकता नहीं है मिस्टर मीडिया!
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