सर्वोच्च न्यायालय ने पेगासस मामले में विशेषज्ञ समिति का गठन कर यक़ीनन लोगों का भरोसा जीता है। कुछ समय पहले तक इस संस्था की गरिमा पर सवाल उठ रहे थे। लेकिन हालिया दिनों में एक बार फिर अवाम की आस बंधी है। आठ सप्ताह का समय बहुत लंबा नहीं है और यह देश चाहता है कि वास्तव में उसकी निजता का उल्लंघन करने वाले इस ख़तरनाक तंत्र की असल कहानी सामने आए। हालाँकि यह काम उतना सरल नहीं है, जितना माना जा रहा है।
अगर कोई सरकार नहीं चाहती कि उसका कोई ख़ास कृत्य मुल्क के सामने उजागर हो तो किसी भी लोकतांत्रिक संस्था के लिए सच्चाई का पता लगाना नामुमकिन नहीं पर कठिन अवश्य हो जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के पास कोई दैवीय चमत्कारिक अधिकार तथा शक्तियाँ नहीं हैं। उसे मामले की तह तक जाने के लिए सरकार के मातहत मंत्रालयों और नौकरशाही पर ही निर्भर रहना पड़ेगा।
समिति के सामने प्रश्न यह नहीं है कि भारत में इस सॉफ्टवेयर का उपयोग हुआ था या नहीं। उसका इस्तेमाल तो हुआ ही है। पता यह लगाना है कि केंद्र या किसी राज्य सरकार ने उसे खरीदा था या नहीं। इजरायली कंपनी कहती है कि वह सॉफ्टवेयर सिर्फ़ सरकारों को उनके राष्ट्रीय हितों की हिफाज़त के लिए देती है। इसके आगे केंद्र सरकार का बयान समझने के लिए काफ़ी है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र सब कुछ नहीं बता सकती। यानी वह इस जासूसी उपकरण की इस मुल्क में उपस्थिति से इनकार नहीं कर रही है। तो समझदार लोगों के लिए इशारा बहुत है। कुछ ऐसा है जिसका खुलासा सरकार नहीं करना चाहती।
अब अदालती समिति को इजरायली कंपनी से वह रसीद चाहिए जो उसने हिंदुस्तान की किसी सरकार को दी होगी। क्या इजरायल से हमारा कोई अनुबंध है, जिसके तहत वहाँ की सरकार भारत के सुप्रीम कोर्ट वह रसीद मुहैया कराए। ज़ाहिर है इजरायल से ऐसी कोई जानकारी ले पाना टेढ़ी खीर है। ऐसे में कोई न्यायालय परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर क्या निष्कर्ष निकाल सकता है?
दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा निजता के अधिकार का है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत भारतीय नागरिकों की व्यक्तिगत ज़िंदगी को संरक्षण मिला हुआ है। क्या इस मामले में यह दीवार दरकी है?
भारतीय दंड विधान में किसी राष्ट्रद्रोही या आतंकवादी को निजता के इस अधिकार का संरक्षण पाने का हक़ नहीं है क्योंकि वह इस अधिकार को पहले ही तोड़ मरोड़ चुका है। उसने इसका इस्तेमाल भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के ख़िलाफ़ किया है। इसलिए कोई भी भारतीय इस मामले में सरकार का ही साथ देगा। चाहे सरकार ने पेगासस का इस्तेमाल ही क्यों न किया हो। लेकिन यदि सरकार ने इस जासूसी उपकरण का दुरुपयोग सियासी मक़सद से किया हो; राजनीतिक विरोधियों की सूचनाएँ एकत्रित करने में किया हो; अपने दल की असहमत धारा की गुप्त गतिविधियाँ पता लगाने में किया हो; राजनेताओं ने अपने आर्थिक हित साधने के लिए किया हो; पत्रकारों और संपादकों पर आलोचना नहीं करने में दबाव डालने के लिए किया हो अथवा दलबदल के लिए प्रतिपक्षी नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने में किया हो तो यह राष्ट्र किसी भी सरकार को माफ़ नहीं करेगा। चाहे वह किसी भी दल की क्यों न हो।
समिति की चुनौतियाँ
इन दोनों उद्देश्यों के अलावा सुप्रीम कोर्ट की इस समिति के सामने कुछ अन्य चुनौतियाँ भी हो सकती हैं। ये चुनौतियाँ समंदर पार जाकर जांच करने से जुड़ी भी हो सकती हैं। क्या भारत सरकार इतनी उदार होगी कि अपने ख़िलाफ़ ही जांच के लिए शिखर समिति को सर्वाधिकार संपन्न बना कर सहयोग करे। इसमें संशय है। मेरा मानना है कि आठ सप्ताह बाद भी कुछ सवाल अनुत्तरित रह जाएँगे। सच जानने की अवाम की मंशा दम तोड़ देगी। महात्मा गांधी ने सात मई, 1944 को यंग इंडिया में लिखा था,
‘मनुष्य की बनाई किसी संस्था में ख़तरा न हो- यह संभव नहीं। संस्था जितनी बड़ी होगी, उसका दुरुपयोग भी उतना ही बड़ा होगा। लोकतंत्र एक बड़ी संस्था है। उसका दुरुपयोग हो सकता है। लेकिन उसका इलाज लोकतंत्र से बचना नहीं बल्कि दुरुपयोग की आशंका को कम से कम करना है।'
इसी बात को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने कुछ इस तरह प्रकट किया है,
"संविधान चाहे जितना अच्छा हो यदि उसका क्रियान्वयन करने वाले लोग अच्छे नहीं होंगे तो वह श्रेष्ठतम संविधान भी किसी काम का नहीं है।”
क्या सर्वोच्च न्यायालय इस दिशा में कुछ ठोस काम कर सकेगा?
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