राज्यसभा टीवी और लोकसभा टीवी अब नहीं हैं। पंद्रह सितंबर की शाम से इनका प्रसारण बंद हो गया। बताया गया है कि इन दोनों चैनलों का विलय कर दिया गया है और एक नया संसद टीवी चैनल आकार ले रहा है। नए चैनल का स्वागत है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है।
सवाल यह है कि क्या दो चैनलों का विलय हो सकता है? घर की दुकान है तो कर लीजिए, वरना क़ानूनन तो संभव नहीं है। हक़ीक़त यह है कि दो चैनल बंद हो रहे हैं और एक नया चैनल शुरू होने जा रहा है। इन तीन चैनलों के तीन अलग-अलग लाइसेंस हैं। श्रेणियाँ भी अलग-अलग हैं। कोई ग़ैर सरकारी कंपनी अपने दो चैनलों का विलय करना चाहती तो सूचना प्रसारण मंत्रालय के नियम उसे रोक देते। ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है। नियमों में संशोधन हुआ नहीं है। संसद में विलय संबंधी नियमावली मंज़ूर कराए बिना यह हो सकता है? अजीब सी बात है। लेकिन जब सारी संवैधानिक संस्थाओं पर घने काले बादल मंडरा रहे हों तो संसदीय चैनल किस खेत की मूली हैं।
बात सिर्फ़ विलय की ही नहीं है। उससे बड़ी है। दुनिया के सबसे पुराने और विराट लोकतंत्र की संसद के दोनों क़ामयाब चैनलों को यक़ ब यक़ बंद करना और नया चैनल प्रारंभ करने की कोई स्वीकार्य वजह समझ में नहीं आती। क़रीब पंद्रह बरस पहले लोकसभा टीवी और दस साल पहले राज्यसभा टीवी शुरू किए गए थे। लोकसभा टीवी का अपना चरित्र कार्यक्रम निर्माण का था। वह संसदीय प्रक्रिया और सरोकारों को ज़िम्मेदारी से प्रसारित करता रहा था। बताने की आवश्यकता नहीं कि इसने चैनलों की भीड़ में अपनी अलग पहचान बनाई थी।
इसी तरह राज्यसभा टीवी का चरित्र ख़बरिया चैनल का था। यानी दोनों का अलग-अलग मिजाज़ और तेवर थे। देखते ही देखते इन दोनों चैनलों ने बाज़ार में निजी चैनलों की तुलना में कहीं अधिक विश्वसनीयता और साख़ की पूँजी कमाई। मुझे राज्यसभा टीवी का कार्यकारी संपादक, फिर कार्यकारी निदेशक बनाया गया था। मैंने इसके जन्म को देखा है, महसूस किया है और अपनी धड़कनों के साथ जुड़ते देखा है। आठ साल तक इसका हिस्सा रहा हूँ।
अपनी पैंतालीस साल की पत्रकारिता - पारी में तैंतीस साल टेलीविज़न के साथ बीते हैं और कोई दस चैनल शुरू करने का अवसर मिला है। इनमें देश के सबसे तेज़ चैनल में भी संपादक रहा हूँ। इस अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि ग़ैर सरकारी चैनलों में तो यदा कदा पेशेवर सरोकारों पर कुछ आक्रमण देखने को मिले थे पर आठ साल राज्यसभा टीवी के मुखिया की पारी में आठ सेकंड भी कंटेंट के मामले में कोई दबाव नहीं आया और न ही निष्पक्षता पर सवाल दागे गए।
इस चैनल ने शिखर तो तब छुआ जब हमारे पास अनेक विधानसभाओं से अनुरोध आने लगे कि हम उनके लिए भी ऐसा ही भरोसेमंद चैनल लगा दें।
कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश जैसे कई प्रदेशों के नाम इस सूची में शामिल हैं। इतना ही नहीं, दक्षिण एशियाई देशों से भी प्रतिनिधिमंडल आए और राज्यसभा टीवी के साथ अपने देश का चैनल प्रारंभ करने का प्रस्ताव दिया। अफ़सोस! फाइलों के जंगल में ये कहीं ग़ुम हो गए।
हमने चार पाँच वर्क स्टेशन, किराए की पाँच कैमरा यूनिट, पाँच एडिटिंग मशीन और इतनी ही टैक्सियों के सहारे एक छोटे सरकारी मकान से चैनल का सफ़र शुरू किया था। बमुश्किल तीस पैंतीस लोग थे और और हमारा अपना स्टूडियो भी नहीं था। उस शुरुआत से हमने लोगों के दिलों को जीता। बाद में आधुनिकतम न्यूज़रूम बनाया तथा एक औसत स्टूडियो तैयार किया। यह स्टूडियो भी उस सरकारी मकान के पिछवाड़े बेकार पड़े एक कबाड़ भरे गोदाम में बनाया गया था। हमारे प्रोफेशनल्स के वेतन उस समय बाज़ार के बराबर ही थे क्योंकि हम अपने पत्रकारों के श्रम का शोषण नहीं करना चाहते थे। हम टीआरपी के बाज़ार में नहीं थे और न ही एक पैसे का विज्ञापन लेते थे। एक स्थिति तो यह भी आई थी जब टीआरपी निर्धारित करने वाली संस्था से संबद्ध एक मित्र मिलने आए। उन्होंने कहा, "आप लोग नहीं जानते कि आप कैसा चैनल निकाल रहे हैं। टीआरपी की होड़ में होते तो पहले स्थान पर होते। यह मैं नहीं, मेरा फीडबैक बोल रहा है।”
चैनल के गीत गाने का मेरा कोई आग्रह नहीं है। मैं तो सिर्फ़ इस देश के आम आदमी के पैसे के इस्तेमाल की बात कर रहा हूँ। चैनलों की सार्थकता तो साबित ही हो चुकी है। हम संसद के कामकाज को आम जनता के साथ जोड़ने का काम भी ख़ामोशी से करते रहे। एक उदाहरण ही काफ़ी होगा। इस विराट देश में लोकसभा के लगभग साढ़े पाँच सौ सांसद और राज्यसभा के ढाई सौ सांसद होते हैं। केवल एक लोकसभा चैनल दोनों सदनों की भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पा रहा था। इतने सांसदों के निर्वाचन क्षेत्रों का परदे पर प्रतिनिधित्व और उनके मुद्दों को जगह मिलना नामुमकिन था। इसके अलावा जब संसद सत्र नहीं चलते तो लोकतंत्र का यह सर्वोच्च मंदिर ताला डाल कर नहीं बैठ जाता। तमाम समितियों का जाल साल भर अपनी बैठकें करता है। भारत के हर क्षेत्र में भूमिका की पड़ताल करता है, भविष्य की चिंताओं का ध्यान रखता है और फ़िज़ूलख़र्ची पर भी नज़र रखता है। सांसदों के देश- विदेश के अध्ययन दौरे चलते हैं, समितियाँ यात्राएँ करती हैं और गंभीर आयोजन चलते हैं।
अतीत में इन सदनों के हमारे पूर्वजों की ज़िंदगी के बारे में हम कितना जानते हैं? इन सब पर हमने गंभीर कार्यक्रम बनाए। तमाम क्षेत्रों के पूर्वजों के सफ़रनामे पर एक एक घंटे के बायोपिक तैयार किए।
देश में क़रीब 15 करोड़ आदिवासी हैं। दूरदर्शन और निजी चैनलों में इनका प्रतिनिधित्व नहीं होता। हमने साप्ताहिक कार्यक्रम बनाया। इसके लिए हमारी टीम उन क्षेत्रों में गई, जहाँ आज तक कोई कैमरा नहीं पहुँचा था।
राज्यपालों की संवैधानिक भूमिका पर एक धारावाहिक बनाया। जाने माने फ़िल्म निर्देशक श्याम बेनेगल से भारत की संविधान कथा की कहानी परदे पर दिखाई। ये वे काम हैं, जिन पर आज़ादी के बाद काम नहीं हुआ था। ऐसे अनगिनत कार्यक्रम हैं जो करोड़ों लोगों के दिलों में आज भी धड़क रहे हैं।
पीड़ा यह भी है कि इन चैनलों में काम करने वाले पत्रकारों को भी सियासी खेमें में बाँट दिया गया। इस घटिया और विकृत सोच ने पत्रकारिता को भी नुक़सान पहुँचाया है। अगर हम लोग ख़राब प्रदर्शन कर रहे होते तो कोई तक़लीफ़ न थी लेकिन जब समंदर पार इनकी ख्याति हो और करोड़ों की संख्या में दर्शक सोशल मीडिया के नए अवतारों पर इन्हें देख रहे हों तो इनकी हत्या को कोई जायज़ नहीं ठहराएगा। बहरहाल, संसद टीवी की पारी का इंतज़ार है। उसे शुभकामनाएँ!
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