सदाबहार नीरज एक ऐसे गीतकार हैं, जिनका राज कपूर से बेहद आत्मीय रिश्ता रहा। इस सिलसिले की शुरुआत कानपुर में हुई थी। बात 1953 की है। तब पृथ्वीराज कपूर अपने पृथ्वी थिएटर का शो लेकर कानपुर आए थे। वे रोज़ अपने नाटक के दो शो करते थे। उन दिनों नीरज कवि सम्मेलनों के स्टार थे। लेकिन तब वे नीरज के नाम से नहीं जाने जाते थे। उनका नाम था - भावुक इटावी।
जनाब भावुक इटावी के नाम से लोग उमड़ पड़ते थे। पृथ्वीराज कपूर ने उनके बारे में सुना तो पुत्र राज कपूर के साथ कवि सम्मेलन में जा पहुँचे। जनाब भावुक इटावी उर्फ़ नीरज को कम से कम तीन घंटे तो अपने गीत सुनाने ही पड़ते थे। कपूर पिता - पुत्र तीन घंटे वहाँ डटे रहे।
जब कवि सम्मेलन समाप्त हो गया तो राज कपूर ने नीरज से अपनी फ़िल्म को लिए गीत लिखने का निमंत्रण दिया। नीरज ने साफ़ मना कर दिया। बोले ,'भाई ! तुम अपनी फील्ड के हीरो हो। मैं अपनी फील्ड का हीरो हूँ। फ़िल्मों में क्या लिखूंगा?'
राज कपूर ने नीरज के पाँव छुए
राज कपूर अपना सा मुँह लेकर लौट गए। लेकिन उनकी दोस्ती की नींव पड़ गई। क़िस्मत ने कुछ ऐसा खेल खेला कि देवानंद से दोस्ती हुई। इतनी गाढ़ी दोस्ती हुई कि राज कपूर के अलविदा कहने तक जारी रही। तो बंबई (तब मुंबई नहीं कहते थे ) में राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' के लिए गीत लिखने की प्रार्थना की। नीरज ने 'ऐ ! भाई ज़रा देख के चलो' लिखा।इसकी धुन अटपटी थी। संगीतकार उलझन में थे तो नीरज ने खुद गुनगुनाते हुए इस गीत की धुन बना दी। राज कपूर ने गीत सुना तो सबके सामने नीरज के पाँव छू लिए। ऐसा बड़प्पन कहाँ देखने को मिलता है?
मायानगरी से लौटे नीरज
लेकिन इसी नीरज ने जब अचानक बंबई से बोरिया -बिस्तर समेट कर अलीगढ लौटने का फ़ैसला किया तो राज कपूर मनाने गए। नीरज ने कहा, 'राज ! यह माया नगरी है। इसमें तो वही आदमी टिकता है जिसे और कुछ काम नहीं आता। मैं तो पढ़ा लिखा आदमी हूँ।'
राज कपूर ने कहा ,'नीरज जी ! आपने मेरी आँखें खोल दीं। अब बताइए आज के फ़िल्म उद्योग में प्रतिभा के आगे सर झुकाने का साहस कोई दिखाता है? सब अपने अपने अहं में डूबे रहते हैं।'
नीरज ने मुझे अपने एक अलग साक्षात्कार में बताया कि राज कपूर जब भी मिलते थे तो कहते थे ,"नीरज जी ! आपके दो दोहे मैंने गांठ बाँध लिए हैं। ये दोहे अक्सर राज कपूर गुनगुनाते थे। ये हैं -
धन से उत्तम ज्ञान है, कारण बस ये जान।
धन की रक्षा हम करें, रक्षे हमको ज्ञान।।
और दूसरा
धन दौलत की प्यास तो कभी नहीं बुझ पाए।
जितना इसे बुझाइए, उतनी बढ़ती जाए।।
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कैमरे की आँख से कविता
बताइए हिंदुस्तान का सबसे बड़ा यह शोमैन सारी उमर परदे पर कैमरे की आँख से कविता रचता रहा। क़रीब क़रीब आधी सदी यह बेमिसाल कलाकार झूम झूम कर चाहने वालों पर अपने हुनर की दौलत लुटाता रहा और ज्ञान की खोज में भटकता रहा।
भले ही वह पढ़ाई लिखाई वाली ढेर डिग्रियाँ नहीं बटोर सका, लेकिन उसके जीवन दर्शन के आगे बड़े बड़े उपाधिधारी पानी भरते थे। वह ज्ञान और दर्शन की खोज में ज़िंदगी भर यायावरी करता रहा। जो भी हासिल किया अपनी फ़िल्मों में किसी न किसी अंदाज़ में परोस दिया।
मेरे साक्षात्कार में उनके कुछ उत्तर इतने गूढ़ और कमाल के होते थे कि एक बार आप अपना सिर खुजाते रह जाएँगे पर अर्थ समझ नहीं आएगा। उसके चाहने वाले भले ही उसे सपनों का सौदागर कहते रहे मगर वह किसी और लोक का मुसाफ़िर था।
हमने उसकी ज़िंदगी में प्यार, सेक्स, औरत की देह और चाहतों के रंगबिरंगे रूप देखे लेकिन उसके भीतर के फ़क़ीर और फ़रिश्ते को नहीं देखा।
वह अपने बारे में कहता था, "कभी कभी ऐसा लगता है कि मेरी अपनी परछाई मुझे घूर कर देख रही है।
एक फिल्मकार की निगाह से मेरी पूरी ज़िंदगी को शॉट्स में बाँटकर, कहीं वाइप, कहीं डिसॉल्व तो कहीं कट करके देख रही है। दूरबीन में बंद हर चीज़ जैसे जीवन के आर्क लेम्पों की अथक चकाचौंध में कैमरे की अपलक आँख से दिखती असंपादित रीलों के ढेर में बदल गई हो। आज सब साथी अपनी अपनी राहों पर अपनी मृगतृष्णा में भटकते हुए और मैं फिर एक बार अकेला खड़ा हूँ मानो ज़िंदगी के नए अध्याय की देहरी पर।
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