मैं उस घोषित इमरजेंसी का घनघोर निंदक था। आज भी हूँ। जब कंगना ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनकी फ़िल्म की प्रशंसा की सूची दी तो संदेह के वशीभूत 'इमरजेंसी' देखने यह सोचते हुए गया कि फ़िल्म को फ़िल्म की तरह देखूँगा। लेकिन यह सरासर बेईमान फ़िल्म निकली। निर्देशक कंगना रनौत (अब भाजपा सांसद) की अपनी राजनीतिक भड़ास। इंदिरा गांधी को आरम्भ में "सम्मानित नेता" बताकर निरंतर कलंकित करने की कोशिश।

कंगना रनौत ने अपनी फ़िल्म इमरजेंसी में क्या तथ्यों का ध्यान रखा है? क्या इस बायोपिक में झूठ को परोसा गया है? पढ़िए, वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी का फिल्म देखने का अनुभव कैसे रहा।
कहना न होगा कि इस फेर में कंगना ने फ़िल्मजगत को ही कलंकित किया है। वे तथ्यहीनता की हदें लांघ गई हैं। इमरजेंसी के बहाने नेहरू, विजयलक्ष्मी, फ़ीरोज़ गांधी, पुपुल जयकर, निक्सन, जॉर्ज पोंपीदू, मुजीबुर्रहमान, मानेकशॉ, रामन्ना, जे कृष्णमूर्ति आदि के बीच "इन्दु" को संकीर्ण, ख़ुदगर्ज़, झगड़ालू ही नहीं, षड्यंत्रकारी तक बता डाला है। कहीं उनमें करुणा झलकती दिखा भी दी तो आगे चालाकी उसे कुटिलता की ओर मोड़ दिया।