राज कपूर बेहद संवेदनशील इंसान थे और ज़मीन से जुड़े हुए। वे दुनिया के तमाम देशों में लोकप्रिय थे, लेकिन उसका कोई गुरूर उनके भीतर नहीं था। इसी वजह से वे जहाँ भी जाते, लोगों को अपना दीवाना बना लेते। ज़िंदगी के शुरुआती ढाबों और दोस्तों से लेकर उनकी जीवन शैली भी एकदम सादा थी। वे हमेशा ज़मीन पर सोते थे। बिस्तर पर उन्हें नींद ही नहीं आती थी। चाहे देश में हों या परदेश में।
एक बार वे लन्दन गए। जिस होटल में ठहरे, उसमें पहली रात ही पलंग से गद्दा उठाया और नीचे बिछाया, फिर सो गए। सुबह होटल वालों को पता चला तो उन्हें चेतावनी दी गई। अगले दिन फिर राज कपूर रात को गद्दा नीचे बिछाकर सोए। फिर मैनेजर उनके कमरे में आया और उनकी हरक़त के लिए ज़ुर्माना भरवाया।
राज कपूर पर कोई असर नहीं पड़ा। जितने दिन भी वे रहे, रोज़ जुर्माना भरते और ज़मीन पर ही सोते। कराड़ परिवार ने इसीलिए उनके शयनकक्ष में राजकपूर की एक प्रतिमा ठीक उसी तरह लेती हुई स्थापित की है, जैसा वे सोते थे।
दोस्तों के साथ हमेशा
वे अपने दोस्तों के दुःख में हरदम उनके साथ खड़े रहे। लेकिन यह केवल मित्रों के साथ नहीं था। वे हर गऱीब और कमज़ोर इंसान के काम आते थे। चाहे उसे जानते हों या नहीं। एक बार वे लोकेशन की शूटिंग के लिए कश्मीर गए। वहाँ मिठाई वाला सड़क किनारे बैठता था। एक दिन उस मिठाई वाले की बोहनी ही नहीं हुई। दोपहर हो गई। बेचारा उदास हो गया।
राज कपूर ने यह देखा तो उनसे नहीं रहा गया। वे ख़ुद सड़क किनारे बैठे और आवाज़ लगाकर मिठाई बेचने लगे। देखते ही देखते सारी मिठाई बिक गई। सारे पैसे उस दुकानदार को सौंपते हुए बोले ,'दोस्त ! जब कभी धंधा मंदा हो तो मुझे बुला लेना।' बेचारा मिठाई वाला राजकपूर का उपकार मानता रहा।
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फ़िल्म शाहजहां का गीत - 'जब दिल ही टूट गया तो जीकर क्या करेंगे' लिखने वाले शायर मजरूह सुल्तानपुरी ने आज़ादी के बाद एक गीत लिखा। इससे केंद्र सरकार नाराज़ हो गई। उन्हें जेल में डालने की नौबत आ गई। वारंट जारी हो गया। इसी दौर में उनकी बड़ी बेटी का जन्म हुआ। मजरूह के परिवार पर मुसीबतों का बोझ टूट पड़ा। ग़रीबी का विकराल चेहरा।
ऐसे में राज कपूर देवदूत के रूप में सामने आए। उन्होंने मजरूह से कहा एक गीत चाहिए जिसमें इंसान भगवान से पूछ रहा है कि ये दुनिया तूने क्यों बनाई ? उन्होंने कहा कि उनकी नई फ़िल्म के लिए यह गीत चाहिए। मजरूह को उन्होंने उन दिनों एक हज़ार रूपए दिए। इससे परिवार पर आया संकट टल गया। मजरूह निश्चिंत होकर जेल चले गए।
और देखिए कि जिस गीत के लिए राजकपूर ने 70 - 72 बरस पहले एक हज़ार रूपए दिए थे, वैसी कोई फिल्म दरअसल थी ही नहीं। 25-30 बरस बाद यह गीत राज कपूर ने इस्तेमाल किया।
लेकिन किसी अन्य का नाम था। जानना चाहेंगे ये कौन सा गीत था - 'दुनिया बनाने वाले काहे को दुनिया बनाई।'
मजरूह जब तक ज़िंदा रहे, राजकपूर को एक भगवान की तरह मानते रहे।
शैलेंद्र की मदद
अमीर हो या ग़रीब। दोस्त हो या एक अनजान इंसान। राज कपूर अगर सहायता कर सकते थे तो पीछे नहीं हटे। आधुनिक कबीर के नाम से लोकप्रिय शैलेन्द्र के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। शैलेन्द्र को इप्टा के एक कार्यक्रम में पृथ्वीराज कपूर के बेटे राजकपूर ने सुना।
शैलेन्द्र ने गीत पढ़ा था - 'जलता है पंजाब हमारा जलता है पंजाब।' कार्यक्रम समाप्त होने के बाद राज कपूर शैलेन्द्र के पास गए। बोले ,'मैं राज कपूर हूँ। पृथ्वीराज कपूर का बेटा। फिल्म 'आग' बना रहा हूँ। आप उसके लिए गीत लिखेंगे।'
उन दिनों शैलेन्द्र का आदर्शवाद चरम पर था। उन्होंने उत्तर दिया ,'मैं साहित्य रचता हूँ। फ़िल्मों - इल्मों में पैसे के लिए नहीं लिखता।'
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बरसात
राज कपूर उदास लौट आए। बात आई गई हो गई। इसी बीच शैलेन्द्र की पत्नी शकुंतला माँ बनने वाली ली। शैलेन्द्र परेशान थे। बंबई में उनके पास घर नहीं था। पत्नी शकुन झाँसी की रहने वाली थीं। शैलेन्द्र ने सोचा उन्हें झाँसी भेज दिया जाए। कम से कम आने वाले मेहमान का स्वागत अच्छा हो जाएगा और शकुंतला की देखभाल भी हो जाएगी।
लेकिन बड़ी मजबूरी थी। शैलेन्द्र कड़की में थे। जेब में दो चार सौ रूपए भी नहीं थे कि शकुन को दे सकते। उन्हें तब राज कपूर की याद आई। वे राज कपूर के महालक्ष्मी दफ़्तर में जा पहुँचे। राजकपूर से ठसक भरे अंदाज़ में बोले , 'आपको याद है। एक दिन आप मुझसे गाना मांगने आए थे।'
राजकपूर ने कहा ,'कविराज ! बिलकुल याद है।'
शैलेन्द्र ने कहा ,'मुझे पाँच सौ रूपए अभी चाहिए। आपको जो भी काम कराना है करा लीजिए।'
राज कपूर ने उन्हें पाँच सौ रूपए तुरंत दे दिए। बोले ,'कविराज ! आप चिंता न करें। कोई जल्दी नहीं है। मैं आपको बता दूँगा।'
शैलेन्द्र आए। पाँच सौ रूपए शकुन के हाथ में रखे और कहा ,'जाओ। अच्छी तरह झाँसी जाओ और नए मेहमान का स्वागत धूम धाम से होना चाहिए।'
इसके बाद वे पिता बने और कुछ पैसा आया तो शैलेन्द्र राज कपूर के पास गए और पाँच सौ रूपए लौटाने लगे। राज कपूर ने कहा 'कविराज ! इसे अपने पास रखो। मेरी फ़िल्म 'बरसात' के दो गीत बचे हैं। आपका मन हो तो लिख दीजिए।'
फिर शैलेन्द्र ने दो गीत दिए, जो बरसात के सुपर हिट गीत थे। एक गीत उसका टाइटल सांग था - 'बरसात में हमसे मिले तुम सनम, तुमसे मिले हम।' इसके बाद शैलेन्द्र फ़िल्मी दुनिया के पहले टाइटल सांग राइटर बन गए।
मारे गए गुलफ़ाम
शीर्षक गीत लिखने का यह रिकॉर्ड हमेशा शैलेन्द्र के नाम रहा।इस फ़िल्म के बाद शैलेन्द्र और राजकपूर की जोड़ी ऐसी जमी कि लोग देखते रह गए। राज कपूर उन्हें अपना पुश्किन कहते थे। जब शैलेन्द्र ने फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' के आधार पर फ़िल्म 'तीसरी क़सम' बनाने का फ़ैसला किया तो उसके नायक राज कपूर ही थे। हीरामन के अनूठे रोल में।
दिलचस्प यह है कि एक दिन राज कपूर ने शैलेन्द्र से कहा ,'मेरा मेहनताना दो।'
शैलेन्द्र के पास उन्हें देने के लिए सौ रूपए भी नहीं थे। फिर भी उन्होंने दुखी होकर पूछा ,'भाई ! कितना मेहनताना चाहिए तुम्हें ?'
राज कपूर ने शैलेन्द्र की जेब में हाथ डाला और उसमें से एक रूपए का सिक्का निकाला। बोले ,'मुझे मेरा मेहनताना मिल गया।' तो यह था राज कपूर का दिल।
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आवारा
जिस फ़िल्म इंडस्ट्री में कोई बिना पैसे एक सेकंड काम नहीं करता, वहाँ राज कपूर एक मिसाल ही थे। राज कपूर की अगली फ़िल्म 'आवारा' का शीर्षक गीत भी शैलेन्द्र की कलम से ही निकला था - 'आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ। आवारा हूँ।'
इस गीत ने तो समंदर पार लोकप्रियता के रिकॉर्ड तोड़ दिए। इस गीत के गायक मुकेश थे। वे भी राजकपूर की मित्र मण्डली में शामिल थे। राज कपूर कहते थे, मुकेश ही मेरी असली आवाज़ है। जब अमेरिका में मुकेश की अचानक एक शो के बाद मृत्यु हुई तो राज कपूर कई दिन तक सामान्य नहीं हो सके। वे राजेंद्र कुमार के साथ एयरपोर्ट गए और मुकेश का पार्थिव शरीर लेकर लौटे।
उसके बाद अंतिम संस्कार तक एक सेकंड के लिए मुकेश को नहीं छोड़ा। दुखी मन से बोले, “देखो ! मेरा दोस्त एक मुसाफ़िर की तरह गया था और एक बक्से में बंद सामान की तरह लौटा है। क्या ज़िंदगी है। हो सकता है मेरे साथ भी ऐसा ही हो।”
राजेंद्र कुमार ने कहा ,'देखो उनकी यह बात कितनी सच निकली।' वे दिल्ली गए थे राष्ट्रपति से सम्मान लेने राज कपूर बनकर और लौटे तो वे भी एक बक्से में सामान बनकर।
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