इरफ़ान ख़ान की मृत्यु एक आकस्मिक ट्रेजडी की तरह ज़रूर है लेकिन सचाई यह भी है कि ख़ुद इरफ़ान को, उनके परिवार को और उनके प्रशंसकों को इसके आने की आशंका थी। कह सकते हैं कि पिछले डेढ़-दो साल (2018) से इरफ़ान एक ख़ास तरह के कैंसर की वजह से मृत्यु के साथ आँख मिचौली खेल रहे थे। कुछ समय तक उन्होंने उसे छकाया और छकाते- छकाते `अंग्रेज़ी मीडियम’ फ़िल्म भी कर डाली। लेकिन मृत्यु को हमेशा के लिए छकाया भी नहीं जा सकता है। छकते छकते अचानक ही घेर लेती है। इसी वजह से हिंदी फ़िल्म उद्योग के इस चहेते कलाकार ने आख़िरकार सबको टाटा–बायबाय कर दिया।
मेरे लिए, और कइयों के लिए दो इरफ़ान ख़ान हैं। एक हैं फ़िल्मों के बड़े अभिनेता- `स्लमडॉग मिलियनेयर’, `जुरासिक वर्ल्ड’, `लाइफ़ ऑफ़ पाई’, `मक़बूल’, `हैदर’, `पान सिंह तोमर’, `लंचबॉक्स’, `हिंदी मीडियम’, `अंग्रेज़ी मीडियम’ जैसी फ़िल्मों में अपनी भूमिकाओं के लिए सराहे जानेवाले इरफ़ान ख़ान। दूसरे हैं रंगमंच के इरफ़ान, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक और लगभग तीसेक साल पहले हिंदी रंगमंच पर कई शानदार भूमिकाओं के लिए चिरस्मरणीय़। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय अपने जिन स्नातकों पर गर्व कर सकता है उनमें इरफ़ान भी हैं।
हिंदी रंगमंच के प्रेमी प्रसन्ना के निर्देशन में 1988 में `लाल घास पर नीले घोड़े’ (मिखाईल शात्रोव के मूल रुसी नाटक का हिंदी अनुवाद) की उस प्रस्तुति को भूल नहीं पाएँगे जिसमें इरफ़ान ने लेनिन की भूमिका निभाई थी। इसमें मक़बूल फिदा हुसैन की पेंटिंग का प्रयोग बैकग्राउंड में हुआ था। यह यथार्थवादी शैली का एक शानदार नाटक था। उस समय ख़ासा चर्चित रहा। लेकिन इसमें यथार्थवाद के एक नियम का पालन नहीं हुआ था। वो इस तरह कि लेनिन एक गंजे इंसान थे और इरफ़ान के सिर पर घने बाल थे। प्रसन्ना ने इरफ़ान के बाल कटवाकर उनको गंजा नहीं दिखाया। दर्शकों को यह अस्वीकार हो सकता था क्योंकि यथार्थवाद के मुताबिक़ अभिनेता को वैसा ही दिखना चाहिए था जैसा मूल चरित्र दिखता है। पर उसमें एक डायलाग ने इसका ऐसा रास्ता निकाला कि वो इस नाटक का एक अहम पहलू हो गया और नाटक को नया आयाम दे गया। डॉयलाग था – `लेनिन यहाँ नहीं बल्कि यहाँ है’। पहली बार `यहाँ’ बोलने के वक़्त इरफ़ान अपनी उंगली को अपने बालों के पास ले जाते थे और दूसरी बार `यहाँ’ बोलते समय कनपटी के पास जो दिमाग़ का प्रतीक था। और जब इरफ़ान ने वो डायलॉग बोला तब हॉल में पहले तो कुछ सेंकेंड के लिए चुप्पी छायी रही और फिर देर तक तालियाँ बजती रहीं। और इस एक डायलॉग से नाटक के अर्थ का भी विस्तार हो गया। लेनिन एक व्यक्ति न होकर विचार बन गया।
प्रसन्ना और इरफ़ान में एक गहरा रिश्ता रंगकर्म के उन्हीं दिनों के दौरान बना। 2015 में जब प्रसन्ना ने कर्नाटक के बदनवालु गाँव में खादी को लेकर एक सत्याग्रह किया तो उनको नैतिक समर्थन देने इरफ़ान वहाँ पहुँचे। अपनी पत्नी सुतपा सिकदर के साथ। मैं भी वहाँ था। बल्कि मैसूर से मैं, इरफ़ान और सुतपा एक ही कार से बदलवालु पहुँचे थे। सत्याग्रह स्थल बदनवालु गाँव के गाँधी आश्रम में था जो लगभग उजड़ गया था। उसके कमरे और कोठरियाँ जीर्ण-शीर्ण हालत में थे। प्रसन्ना ने ईंटों से जोड़जाड़कर सुतपा सिकदर के लिए एक टेंपररी टायलेट बना दिया था वरना सभी खुले में शौच गए थे। इरफ़ान और सुतपा एक रात ही वहाँ टिके थे और एक खुले चबूतरे पर हम सोए थे। प्रसन्ना, मैं, इरफ़ान, सुतपा सिकदर, अनिल हेगड़े (जनता दल यू के नेता) और दो और लोग। सोए क्या थे बस जागते-जागते सोए थे। लगभग तीन बजे तक इरफ़ान के क़िस्से सुनते रहे जो उन्होंने `लाइफ़ ऑफ़ पाई’ की मेकिंग के बारे में सुनाई थी। समय काटना था क्योंकि मच्छर काट रहे थे।
पर वो एक यादगार रात थी। यह रात इरफ़ान का प्रसन्ना के प्रति जो सम्मान भाव था उसका भी द्योतक था। बाद में प्रसन्ना ने इरफ़ान के साथ मिलकर गाँधी के `हिंद स्वराज’ पर आधारित एक नाटक करने की कोशिश की जो नहीं हो सका।
फ़िल्मों में भी इरफ़ान का अभिनय रंगमंच के अभिनेता का ही विस्तार था। जिस फ़िल्म ने उनको फ़िल्मों में बतौर अभिनेता स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई वह भी एक नाटक का फ़िल्मी एडाप्टेशन था। यह फ़िल्म थी `मक़बूल’ जो शेक्सपीयर के नाटक `मैकबेथ’ का हिंदी रूंपातर थी। निर्देशक थे विशाल भारद्वाज। इरफ़ान कभी भी, किसी भी फ़िल्म में `लार्जर दैन लाइफ़’ नहीं दिखे। वह हमेशा `नॉन एक्टर’ की तरह दिखे। एक ऐसे सामान्य या आम आदमी की तरह जो अचानक ही अपने घर से सीधे फ़िल्म के सेट पर चला आया हो। जिसमें एक ऐसा चार्म हो जो सबको मोहक लगे। इसी कारण इरफ़ान ने हिंदी और अंतराष्ट्रीय फ़िल्मों में अभिनय का एक नया व्याकरण लिखा। इस व्याकरण को और बड़ा होना था। लेकिन काल की गति!
इरफ़ान की आख़िरी प्रदर्शित फ़िल्म `अंग्रेज़ी मीडियम’ थी। दुर्भाग्य से जिस दिन रिलीज हुई उसी दिन से हिंदुस्तान में कोरोना का देशव्यापी प्रकोप शुरू हो गया और बॉक्स ऑफ़िस पर यह फिल्म शहीद हो गई। लेकिन यह इरफ़ान के जीवनकाल में ही प्रदर्शित हो गई यह अच्छा भी हुआ। वरना उनको एक अफसोस बना रहता।
`अंग्रेज़ी मीडियम’ इरफ़ान की पिछली फ़िल्म `हिंदी मीडियम’ की एक कड़ी थी। एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह। भारत में, और दूसरे देशों में भी, जब इस समाजशास्त्रीय पक्ष का विश्लेषण होगा कि कोई एक वर्चस्वशाली भाषा किस तरह सामाजिक विकास की राह में अवरोध बन जाती है और कैसे इस कारण समाज में सांस्कृतिक उथल-पुथल मचा रहता है, तो इन दोनों फ़िल्मों और इरफ़ान के इनमें अभिनय की ज़रूर चर्चा होगी। इरफ़ान को बतौर अभिनेता भारत में भी प्रतिष्ठा मिली और अंतरराष्ट्रीय मंच पर यानी अंग्रेज़ी फ़िल्मों में भी। इस तरह उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा रूपी उस दीवार को भी लांघा जो भारतीयों के एक बड़े वर्ग को चीन की दीवार की तरह दुर्लंघ्य लगती है। देसी मुहावरे में कहें तो इरफ़ान मूलत: हिंदी मीडियम वाले थे। जयपुर के अतिसाधारण आर्थिक पृष्ठभूमि ने जन्म लेनेवाले इस शख्स में अभी कई और संभावनाएँ बची थीं।
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