राहुल सांकृत्यायन अथक यायावर हुए हैं। उनके बाद 'बाबा' को यह खिताब अथवा दर्जा हासिल हुआ। फिर किसी को नहीं। बाबा यानी वैद्यनाथ मिश्र विद्यार्थी वैदेह यात्री नागार्जुन बाबा! जनवादी-प्रगतिशील हिंदी और मैथिली कविता के अप्रीतम हस्ताक्षर। जिनका साहित्य और जीवन खिली हुई धूप सरीखा था। हिंदी और मैथिली में लिखे गए उनके संपूर्ण साहित्य में अंधेरे के ख़िलाफ़ लड़ने का आह्वान है, लोकद्रोही, सांप्रदायिक व फासीवादी शक्तियों के ख़िलाफ़ जेहाद की उकसाहट है, क्रांति के सपने हैं और भूख-वर्गीय ग़रीबी से गरिमा के साथ जूझने की यथार्थवादी तरकीबें हैं। गद्य में जो काम मुंशी प्रेमचंद ने किया, आगे जाकर पद्य में नागार्जुन ने किया।
हालाँकि बाबा का कथा-साहित्य भी बेहद उल्लेखनीय और विलक्षण है। लेकिन उनकी मूल पहचान कवि की है। लोकवादी कवि की। नागार्जुन पूरे एक युग का नाम था। जैसे मुक्तिबोध, त्रिलोचन, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल अपने-अपने तौर पर 'युग' थे। हिंदी काव्य साहित्य का इतिहास और वर्तमान इन्हें इसी रूप में मानता-जानता है। ख़िलाफ़ हवाओं के बावजूद भविष्य भी इसी रूप में स्वीकार करेगा, यकीन रखना चाहिए।
जमकर लिखने के साथ-साथ बाबा नागार्जुन ने ताउम्र जमकर घुमक्कड़ी की। यायावरी और वह एक-दूसरे के पर्याय थे। बाबा समूची दुनिया को अपना घर मानते थे। देश तो उनका 'घर' था ही। न जाने कितने परिवारों के वह सर्वमान्य बुजुर्ग थे।
एक बार जालंधर आए। कालजयी उपन्यास 'धरती धन न अपना' के लेखक (अब दिवंगत) जगदीश चंद्र को ढूंढते रहे। पता चला कि वह इन दिनों होशियारपुर हैं तो वहाँ चले गए। उसके बाद उससे भी आगे निकल गए। गोया उन्हें यायावरी का नशा था। कभी पंजाब में तरसेम गुजराल के यहाँ होते थे तो कभी मध्य प्रदेश में हरिशंकर परसाई, ज्ञानरंजन और भाऊ समर्थ के यहाँ डेरा- डंडा जमा रहता था। अमृतसर में एक बार तो चंडीगढ़ में दो बार बाबा नागार्जुन महान नुक्कड़ नाटककार गुरशरण सिंह के मेहमान बने।
प्रख्यात आलोचक विजय बहादुर सिंह ने उनकी यायावरी पर लिखा है: 'वह अपनी शर्तों पर डेरा जमाते। सुरुचि, आत्मीयता, सहजता, उन्मुक्तता, प्रतिबंधमुक्त दिनचर्या का रंगारंग और विभोरकारी आस्वाद ही उन्हें इन जगहों और ठिकानों तक जब-तब खींच लाता। रहने और जाने को तो वह कहाँ नहीं जाते और रहते थे पर उनका मन तो ऐसी जगहों पर रमता था जहाँ पारिवारिक व्यवस्था का उत्पीड़क दबाव और स्थूल औपचारिकताओं के दुर्वेह के झमेले न हों।' कभी खुद नागार्जुन ने कहा था, 'जिसने जनजीवन को नज़दीक जाकर नहीं देखा, बार-बार नहीं देखा, वह भला अच्छी रचनाएँ कैसे लिख सकता है? हर लेखक को घुमक्कड़ी ज़रूर करनी चाहिए।'
कितने ही ख्यात लेखकों ने उनके प्रवास की बाबत दिलचस्प ब्यौरे दर्ज किए हैं। मैथिली-हिंदी के प्रसिद्ध लेखक तारानन्द वियोगी ने बाबा नागार्जुन की प्रमाणिक जीवनी 'युगों का यात्री' लिखी है। इसमें उनकी यात्राओं का सविस्तार ज़िक्र है। क्षमा कौल ने एक बार नागार्जुन को कश्मीर आमंत्रित किया तो उन्होंने तीन शर्तें रखी थीं- कवि दीनानाथ नादिम से बार-बार मिलूँगा, चिनार वृक्ष के साथ अधिक से अधिक समय बिताऊँगा और वितस्ता के जल में आचमन करूँगा। चिनारवाली अन्य कविताओं के साथ 'बच्चा चिनार' और संस्कृत कविता 'शीते वितस्ता' उसी यात्रा की कविताएँ हैं। राजेश जोशी ने अपने एक लेख में संकेत किया है कि- 'नागार्जुन की सारी कविताएँ एक घुमक्कड़ कवि की यात्रा-डायरियाँ हैं।'
राजेंद्र यादव का कथन है- 'देश का शायद ही कोई कोना हो जहाँ की यात्राएँ उन्होंने न की हों। पर्यटक की तरह नहीं, तीर्थयात्री की तरह। वे ज़िंदगी भर यात्राएँ करते रहे। तय करना मुश्किल है कि उनकी ये यात्राएँ भौगोलिक अधिक थीं या मानसिक और रचनात्मक। इन यात्राओं से जो स्मृति चिन्ह (सोविनियर) वे लाए, वह आज हमारे साहित्य की अमूल्य धरोहर है।'
कमलेश्वर ने नागार्जुन पर लिखे अपने व्यक्ति चित्र में लिखा- 'असम, उड़ीसा से राजस्थान या मध्य प्रदेश के अंतरालों में या गंगोत्री की चढ़ाई में या कश्मीर के रास्ते में, या लोनावला के चायघर में, या बोरीबंदर स्टेशन पर-हर जगह एक-न-एक ऐसा व्यक्ति ज़रूर मिला है, जो नागार्जुन-सा लगता रहा है। ऐसा क्यों है कि हिंदुस्तान के हर पड़ाव पर एक-न-एक नागार्जुन नज़र आता है? यह सपने की बातें नहीं, सच्चाई है कि बाबा नागार्जुन हर जगह दिखाई पड़ जाते हैं। यशपाल दिखाई नहीं देते। अमृतलाल नागर भी नहीं, भगवती बाबू भी नहीं। पर मुक्तिबोध और नागार्जुन दिखाई पड़ जाते हैं। एक बार किसी सूने छोटे-से स्टेशन से गाड़ी चली, केबिन गुजरा और दिखाई दिया कि नागार्जुन खिड़की की पाटी से लगे झंडी झुकाए खड़े हैं।'
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