हेमंत सोरेन
जेएमएम - बरहेट
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हेमंत सोरेन
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पूर्णिमा दास
बीजेपी - जमशेदपुर पूर्व
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वह जब कभी बचपन था
वह जब कभी काठ की पाटी सरकण्डे या करील की
चाक़ू से छील-कांछ कर बनायी गयी क़लम थी
वह जब एक सोंधी पकी हुई मिट्टी की चुकड़िया थी
जिसमें दूध जैसी छुई मिट्टी का गाढ़ा घोल था।
‘क’
लिखे को सपने में देखता रहा
तभी मैंने देखा
एक बहुत बीमार-सा, किसी तपेदिक में कांपता, एक बूढ़ा कबूतर
जिसका रंग था दूध जैसा सफ़ेद जिसके पंख थे टूटे हुए
धीरे-धीरे किसी तरह रेंगता
नींद की ड्यौढी और जागने की चौखट के पार चला गया
अचानक किसी धमाके या किसी अजीब-सी चीख़ के बीच
टूट गयी मेरी नींद
सोने और जागने के अनगिनत वर्षों से लगातार लिखी जा रही
कविता में से चला गया था वह पंख टूटा सफ़ेद बूढ़ा कबूतर
धमाकों और चीख़ की दिशा में
नींद की ड्यौढी और जागरण के चौखट के पार।
अब 'क' सीखने वाले कवि को याद आता है कि उसका वह 'क' छिन गया है, जो आगे बढ़ते, पढ़ाई करते, लिखते हुए तमाम सपनीली दुनिया दिखाता है। कवि को यह भी याद आता है कि बचपन में 'क' माने कलम भी सिखाया गया था। कवि देखता है कि किस तरह से इस 'क' के साथ कलम को भी रौंद डाला गया है।
उसे संभवतः सत्ता का पूरा पदानुक्रम नज़र आता है कि समाज को जातियों और धर्मों में बाँटकर हर जाति और धर्म का शासक उस 'क' को मार देना चाहता है, जिससे बनी है कलम।
मैं डरा हुआ काल के कानों में बहुत धीरे से कहना चाहता हूँ
किसी भी वर्ण-विभाजित बर्बर समाज या समुदाय की भाषा की वर्णमाला के
पहले ही वर्ग का सबसे पहला व्यंजन
जब रटाया जायेगा
किसी प्राथमिक पाठशाला की पहली ही कक्षा के बच्चों को :
बोलो ‘क’ माने ‘कमल’
‘क’ माने ‘क़लम’
‘क’ माने ‘कबूतर’
बच्चे तो वही रटते और दोहराते हैं
जो सिखाता-पढ़ाता है उन्हें वेतन-भोगी शिक्षक।
वह सत्ता, जिसने 'क' को मार डाला है। वह सत्ता कश्मीर तक पहुंच गई है और कश्मीर भी उसी 'क' से बना हुआ है, जिसे इस समय किसी मध्य काल की किसी जीती गई रिसासत की तरह रौंदा जा रहा है।
लेकिन अगर कोई सुन सके
संसार भर और ब्रह्मांड भर के बच्चों की नींद
या स्वप्न या अंतरात्मा की आवाज़
तो सुनाई देगी एक अजीब सी गूँज
दसों दिशाओं में गूँजतीं उस गूँज की अनगिनत प्रतिध्वनियाँ
‘क’
माने
‘कश्मीर’।
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