कुछ लेखकों की किताबें या कुछ रचनाकारों की रचनाएँ ऐसी होती हैं जो किसी भी कालखंड में लिखी गईं हों पर प्रासंगिक बनी रहती हैं। समय और काल का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उन किताबों या रचनाओं की प्रासंगिकता को बनाये रखने में हमारे समाज और राजनीति की बड़ी भूमिका होती है। इन किताबों की प्रासंगिकता भले ही लेखक या रचनाकार की सफलता हो सकती है लेकिन एक राष्ट्र के रूप में यह हमारी विफलता की गवाही देता है। साथ ही यह हमें सामूहिक रूप से आत्म चिंतन, आत्म मंथन, आत्म निरिक्षण और आत्म विश्लेषण के लिए एक अवसर भी प्रदान करता है।
'क़ौल-ए-फ़ैसल' पुस्तक समीक्षा: अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट को जब मौलाना आज़ाद ने कहा था…
- साहित्य
- |
- 23 Dec, 2022
क़ौल-ए-फ़ैसल मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का अदालत में दिया गया तहरीरी (लिखित) बयान है। मूलतः यह रचना उर्दू में है। इसका हिंदी अनुवाद मोहम्मद नौशाद ने किया है।

ऐसी ही एक रचना क़ौल-ए-फ़ैसल है, जो कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का अदालत में दिया गया तहरीरी (लिखित) बयान है। मूलतः यह रचना उर्दू में है। इसका हिंदी अनुवाद मोहम्मद नौशाद ने किया है। फिलवक़्त मोहम्मद नौशाद दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में शोधरत हैं।
21 दिसंबर 1921 को मौलाना आज़ाद को कोलकाता में गिरफ़्तार कर लिया गया। अपने केस की कार्रवाई में मौलाना हिस्सा नहीं ले सके। लेकिन 24 जनवरी 1922 को उन्होंने अदालत में एक लिखित ब्यान "क़ौल-ए-फ़ैसल" (अंतिम निर्णय, आख़िरी बात) के उन्वान से दिया। 9 फ़रवरी को उन्हें एक साल की क़ैद बा मशक़्क़त की सज़ा दी गई और उनको अलीपुर जेल भेज दिया गया।