मंच पर एक एक कर रोशनी होती है - कई स्त्रियाँ खड़ी हैं एक साथ, एक पुरुष आता है, वह अचंभित है कि इस नाटक में वह अकेला पुरुष है, हर कहानी में वही एक किरदार बन जाता है जबकि स्त्रियाँ अलग -अलग हैं।

महिलाओं की पहचान थीम पर आधारित नाटक 'बेटियाँ मन्नू की' का मंचन किया गया। जानिए, समाज में महिलाओं की स्थिति और उनकी पहचान से जुड़े पहलुओं का कैसे मंचन किया गया।
एक स्त्री पात्र कनिका पूछती है- "क्या हम कच्ची मिट्टी के लौंदे हैं जिन्हें वो बार-बार फेंटती रहीं और हमें अलग-अलग नाम और स्थितियां देकर गढ़ती रहीं?"
तब शकुन कहती है- "दीपा, तुममें मैं भी कुछ समाई हूं, जैसे तुम कनिका के भीतर।"
दीपा- "शायद , हम सब एक-दूसरे में जीते रहते हैं।"
इसी दृश्य में पुरुष कहता है- "मैं कुछ बोलूं। मैं तो सब हूं - मैं ही बंटी भी, मैं ही गीत भी हूं और मैं ही संजय भी। शायद निशीथ भी।"
"आपका बंटी" की शकुन हंसते हुए जवाब देती है- “अब तो ये बात कहावत बन चुकी है कि सारे मर्द होते भी एक जैसे हैं।“
पूरा सभागार ठहाके लगाता है। नाटक में कुछ पल के लिए तनाव कम होता है। थोड़ी देर पहले स्त्रियाँ अलग-अलग कहानियों से निकल कर मंच पर विलाप करते हुए सवाल पूछ रही थीं।