सोचा था... किसी को श्रद्धांजलि नहीं दूँगी। बहुत हो गया। पिछले दिनों इतने क़रीबी गुजरे कि दामन ख़ाली हो गया। आँखें पथरा गई हैं। रोते हैं मगर आँसू नहीं, सूखे पत्ते झरते हैं।
‘हर सुबह जागने से डर लगने लगा है… अब शेष नारायण सिंह नहीं रहे’
- श्रद्धांजलि
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- 29 Mar, 2025

क्या क्या लिखूँ...अपनापन की कोई तस्वीर बनती तो आपका चेहरा बनता। आप मेरे जीवन के देसी राग थे... बजते थे तो पराया देश अपना गाँव लगने लगता था। हम सब छोड़ कर आए थे, जिन लोगों ने अनजान दुनिया को हमारे लायक बनाया... उनमें एक आप थे। विदा नहीं दूँगी मैं.... उठिए और ठहाके लगाइए...।
हर सुबह अब जागने से डर लगने लगा है। ख़बर जैसे इंतज़ार में बैठी रहती है। कोई सुबह ख़ाली नहीं। मृत्यु को रोज़ हमारे लोग चाहिए।
घनिष्ठ मित्र अरुण पांडेय चले गए।
पत्रकार साथी अशोक प्रियदर्शी चुपचाप चले गए।
आज सुबह मेरे अभिभावक -मित्र पत्रकार शेष नारायण सिंह चले गए। कल उनके प्लाज़्मा का इंतज़ाम भी हो गया था। हम आश्वस्त थे कि अब ख़तरा टल गया है, वे ठीक हो जाएँगे। अस्पताल से बाहर आकर अपने ठेठ देशी अंदाज़ में कहेंगे- ‘ई ससुर, कोरोनवा हमको काहे धर लिया... हम ससुरे को पछाड़ दिए।’
इसी अंदाज में वे बातें करते थे। हमेशा परिहास के मूड में और अपने देशी अंदाज में। इतना पढ़ा लिखा इंसान हमेशा अपने को देसी अंदाज में रखता था। उनसे गाँव -घर की ख़ुशबू आती थी। मेरे लिए हमेशा अभिभावक की तरह रहे। पिछली यात्रा हमने शिमला की साथ की थी। साथ गए और लौटे।