निर्भया के बलात्कारियों को फाँसी दे दी गई है। इस मुद्दे पर देश दो धड़ों में बँटा हुआ है। एक धड़ा चाहता है कि फाँसी की सज़ा रखी जानी चाहिए, जबकि उदारवादी खेमा चाहता है कि फाँसी के बजाय मृत्युपर्यंत क़ैद बामशक्कत सज़ा दी जानी चाहिए। फाँसी की सज़ा देने से तो भीतर का डर जाता रहेगा। दोषी और क्रूर हो जाएँगे। प्रगतिशील, उदारवादी खेमा बलात्कारियों के एनकाउंटर के भी ख़िलाफ़ है।

निर्भया बलात्कार व हत्याकांड के दोषियों को मृत्युदंड दे दिया गया है। मृत्युदंड ऐसी सज़ा है, जिस पर पूरी दुनिया में दो साफ़ विचारधाराएं समानान्तर चलती है। कुछ लोग इसके पक्ष में तो कुछ लोग इसके ख़िलाफ़ है। सवाल है, मृत्युदंड नहीं तो क्या?बौद्धिक तबक़ा फाँसी की सज़ा के ख़िलाफ़ है। क़ानून फाँसी की सज़ा बहाल रखे हुए है। प्रतिक्रियावादी भावुक महिलाएँ बलात्कारियों को तड़पा–तड़पा कर मारना चाहती हैं। अपनी आँखों के सामने उन्हें तड़पता देखना चाहती हैं। क्या इसमें बीच का कोई रास्ता हो सकता है?