साहित्य में थ्रील आ गया है....

“नैना” के लेखक ख़ुद पत्रकार हैं तो उन्हें संतुलन बना कर चलना है। लिखना है। यह संतुलन दिखाई देता है। यह अनायास तो नहीं ही हुआ होगा। मीडिया का चेहरा बचाना भी ज़रूरी था। वो बचा ले गए हैं। चाहे नैना बदनाम हुई मीडिया तेरे लिए। और बदनाम स्त्रियों का रास्ता किधर जाता है। स्त्रियों की महत्वाकांक्षाएँ हमेशा कटघरे में रहेगी। इसीलिए उसकी मृत्यु भी जस्टिफ़ाइड हो जाए।
परख से परे है ये शख्सियत हमारी...
हम उन्हीं के हैं जो हम पर यकीं रखते हैं
“नैना” को पढ़ते हुए बार-बार ये शेर याद आता रहा। पत्रकार और अब उपन्यासकार संजीव पालीवाल का पहला उपन्यास पढ़ गई। पढ़ते हुए बहुत रोमांच होता रहा। क्या सुखद संयोग है कि टीवी की दुनिया पर इधर संजीव लिख रहे थे, उधर मैं प्रिंट मीडिया की दुनिया पर। हम दो अलग-अलग दुनियाओं के बाशिंदे हैं। मैं प्रिंट मीडिया में जीवन गुज़ार आई। संजीव अभी टीवी की दुनिया में रमे हुए हैं।
इसलिए यह उपन्यास आँखिन देखे सत्य का विश्वसनीय दस्तावेज़ है जो बेहद तिलिस्मी है। नैना का किरदार पढ़ते हुए यही शेर मुझे याद आया। क्या उपन्यासकार ने जानबूझ कर उसे ऐसा गढ़ा है कि उसके विचार और व्यक्तित्व में तालमेल दिखाई न दे, या पूरी पीढ़ी का यही चरित्र है। सोचना कुछ और, जीना कुछ और, होना कुछ और। पाना कुछ और। नैना इतनी उलझी हुई क्यों है?