“हर अमृता को रिस्पेक्ट और हैप्पीनेस चाहिए, थप्पड़ वाला प्यार नहीं”

हिंसा के बदले हिंसा की पैरोकारी नहीं करती फ़िल्म थप्पड़। फ़िल्म की नायिका अमृता चाहती तो भरी पार्टी में पति के थप्पड़ का जवाब थप्पड़ से दे कर हिसाब बराबर कर सकती थी। उसने ऐसा नहीं किया। क्योंकि प्रतिशोध लेना उसका मक़सद नहीं था। अपने कंफ़र्ट ज़ोन से बाहर निकल कर दुनिया को मैसेज देना ज़रूरी था।
ऐसी उम्मीद दिवास्वप्न है।
कहाँ है? किस व्यवस्था से उसे उम्मीद है? वर्तमान पारिवारिक ढाँचे में तीन हज़ार साल से कोई बदलाव नहीं आया तो अब क्या आएगा? नसों में जो ग़ुलामी उतार दी गई है, उसे कैसे बाहर निकालेंगे? थप्पड़ एक फ़िल्म नहीं, स्त्री के स्वाभिमान का लहूलुहान चेहरा है। सदियों के थप्पड़ों का दाग चाँद पर है और स्त्री का चेहरा वही चाँद है। आप चाँद के चेहरे पर दाग़ के अर्थ ढूँढना बंद कर दीजिए। उसका जवाब आपकी ऊंगलियाँ हैं जो सदियों से किसी स्त्री का गाल ढूँढती चली आई हैं। चाँद के चेहरे पर झाइयाँ नहीं है वो दाग़। आपके ज़ुल्मों सितम की कहानी है... हिंसा की लिपि पुरुषों से बेहतर कौन लिख और पढ़ सकता है? हिंसा की लिपि कई स्तरों पर लिखी जाती है। मानसिक और शारीरिक दोनों स्तर पर।
स्त्री के गाल और उसकी देह तो पहले से ही उस लिपि के लिए स्लेट का काम करते थे, अब उसकी आत्मा पर थप्पड़ के फफोले उगने लगे हैं।
सवाल एक थप्पड़ का नहीं है बाबा। मत ढूँढिए। न ही तर्क दीजिए कि एक ही थप्पड़ तो मारा था। इतना तो चलता है। यह कोई बड़ी बात नहीं है। औरत को सहने की आदत डाल लेनी चाहिए।