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आधुनिक समय का बीज शब्द सुख या दुख नहीं, विडंबना है। हम सब तमाम तरह की विडंबनाओं में जीने को अभिशप्त हैं। जो रचना इन विडंबनाओं को अच्छे ढंग से पकड़ती है, वह बड़ी होती है। प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' इसलिए बड़ी है कि वह सुख-दुख की नहीं, विडंबना की कहानी है।
मगर विडंबना कहते किसको हैं? इसे परिभाषित कैसे कर सकते हैं? विडंबनाएं दरअसल कई तरह की होती हैं। जो यथार्थ है और जो दिख रहा है, उसके बीच का अंतर भी विडंबना है। आप भीतर से बहुत दुखी हैं और खुश दिखने को मजबूर हैं, यह विडंबना है। यथार्थ के बोध से अपरिचय भी विडंबना है। दुख या सुख का अनुभव न कर पाना विडंबना है। अन्याय, शोषण और विषमता के तमाम रूप भी विडंबना के बहुत प्रगट और प्रत्यक्ष प्रकार हैं।
मगर विडंबना को पहचानना और उसको विडंबना की तरह लिखना दो अलग-अलग बातें हैं। बहुत सारी प्रत्यक्ष विडंबनाओं का चित्रण आसान है। लेकिन छुपी हुई विडंबनाओं की पहचान और अभिव्यक्ति इतनी सहज नहीं। इन्हें महज दुख या कातरता या करुणा के वृत्तांत की तरह नहीं लिखा जा सकता।
ग़ालिब का शेर है - 'उग रहा है दरो-दीवार से सब्ज़ा ग़ालिब / हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है'। ग़ालिब दरअसल बदहाली का ज़िक्र कर रहे हैं। घर का हाल ये है कि दीवारों से भी जड़ें और टहनियां अंखुआ रही हैं। मगर ग़ालिब इसे घर की बहार बता रहे हैं। यह अपनी ग़रीबी या अपने संकट का कातरता भरा बयान नहीं है, अपने हालात की विडंबना पर हंस सकने की ताक़त है जो इस शेर को और ग़ालिब को बड़ा बनाती है। यह विडंबना बोध ग़ालिब में भरपूर है जो उन्हें बड़ा भी बनाता है और आधुनिक भी। 'ईमां मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ्र / काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे' और 'आशिक हूं मैं प' माशूक फ़रेबी है मेरा काम / मजनूं को बुरा कहती है लैला मेरे आगे' इसी विडंबना-बोध की अभिव्यक्तियां हैं।
ग़ालिब के इन अशआर से विडंबना को व्यक्त करने का एक रास्ता दिखता है। सुख या दुख या उदासी को पलट कर लिखें। उससे आँख मिलाएँ, उसमें घुलने या विगलित होने की जगह उसे कुछ दूरी से देखें- तब उसमें जीवन के कुछ और परतें दिखेंगी, उन्हें लिखने के कुछ और तरीक़े मिलेंगे। लगभग गुमनाम से शायर अब्दुल हमीद अदम का 'दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं / दोस्तों की मेहरबानी चाहिए' भी इसी बाँकी विडंबना का शेर है।
मुक्तिबोध विडंबना को अचूक ढंग से पहचानते हैं। उन्हीं में यह सलीका है कि कह सकें कि 'चांद का मुंह टेढ़ा है।' 'अंधेरे में' के भीतर भी विडंबना के अनगिनत प्रयोग हैं।
कुमार अंबुज और देवी प्रसाद मिश्र की कविताओं में यह विडंबना-बोध बहुत प्रखरता से दिखता है। 'जिधर कुछ नहीं' नाम से प्रकाशित कविता में देवी प्रसाद मिश्र शुरुआत ही यहां से करते हैं- 'भाषा जब ट्रॉल और सर्वानुमति के / दो ध्रुवांतों में नष्ट हो रही थी / वृत्तांतों के उजाड़ में / एक और बोली खोजने का बियाबान था मैं।'
मोपासां की एक मशहूर कहानी है- नेकलेस। कहानी में निम्नमध्यवर्गीय घर की मातिल्दा एक पार्टी में जाने के लिए अपनी दोस्त से हीरों का एक नेकलेस उधार लेती है। वह बेहद महंगा नेकलेस खो जाता है। वह और उसके पति काफ़ी संपत्ति बेच कर और कुछ गिरवी रख कर ठीक वैसा ही नेकलेस खरीदते हैं और उसे चोरी की बात बताए बिना वापस कर देते हैं। लेकिन इसके बाद परिवार बिल्कुल सड़क पर आ जाता है। दस वर्ष बाद फिर वह दोस्त मातिल्दा को मिलती है और इस ग़रीब हालत में उसे देख हैरान रह जाती है। तब मातिल्दा बताती है कि दस साल पहले जो हार उसने उसे दिया था, वह गुम हो गया था और ठीक वैसा ही हार खरीदने में वे सड़क पर आ गए। तो वह दोस्त बताती है कि वह हार तो नकली था। बस खोए हुए हार का सच न बोल पाने की सज्जनता या शर्म के दबाव में पूरी ज़िंदगी एक विडंबना हो गई।
हिंदी लेखकों में यह विडंबना बोध नहीं है, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन हिंदी का ज़्यादातर लेखन शायद आत्मनिष्ठ वृत्तांतों में- सुख-दुख, प्रेम-छलना, शोषण-क्रांति आदि की सरणियों में- सिमट कर रह जाता है। किसी अनुभव से अपेक्षित दूरी के अभाव में रचना उस विडंबना को पकड़ नहीं पाती जो अन्यथा वहां मौजूद रहती है।
गैब्रिएल गार्सिया मारक़ेज़ का पूरा लेखन आधुनिक समय की विडंबनाओं की गहरी पड़ताल है। इतिहास से वर्तमान के कटाव, धर्म और राज्य की अतीतजीवी भव्यता और इंसानी अंतर्द्वंद्व की बहुत सारी तहों को खुरचती उनकी कलम अंततः अपने विरेचन में जिस उदात्त मनुष्यता तक पहुंचती है उसके पहले का चरम विडंबनाओं की अचूक पहचान के बीच ही बुना जाता है।
(प्रियदर्शन की फेसबुक वाल से)
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