पिछले कई दशकों से आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) देश में सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक सरोकार का विषय बना हुआ है तथा 2014 में केंद्र में बीजेपी सरकार के गठन को इसके शक्ति विस्तार के रूप में देखा गया। शिक्षा की सार्वभौमिक सुलभता की औपनिवेशिक शिक्षा नीति के चलते शिक्षा तथा बौद्धिक संसाधनों पर शासक वर्गों (जातियों) का एकाधिकार समाप्त होने से वर्ग वर्चस्व की विचारधारा ब्राह्मणवाद ख़तरे में पड़ गयी। मुसलिम-विरोध के सिद्धांत पर उन्मादी राजनैतिक-सांस्कृतिक लामबंदी के लिए वर्णाश्रमवाद (ब्राह्मणवाद) को आरएसएस ने ‘हिंदुत्व’ के रूप में परिभाषित किया जिसकी रक्षा के लिए बहुजन की ताक़त की ज़रूरत आ पड़ी। दलितों में आरएसएस का संगठित प्रचार ब्राह्मणवाद की सुरक्षा में बहुजन की लामबंदी के प्रयास के ही उपक्रम हैं। समीक्षार्थ पुस्तक, आरएसएस और बहुजन चिंतन में जाने-माने चिंतक, कँवल भारती ने आरएसएस के प्रचार साहित्य की आठ किताबों के विश्लेषण से दर्शाया है कि वे यह अपने प्रचार में लगातार ‘अर्धसत्य, असत्य या सफेद झूठ का सहारा’ लेता है। पुस्तक की भूमिका में आनंद तेलतुम्बड़े ने आगाह किया है कि ‘यह भी समझने की ज़रूरत है कि झूठ का सहारा लेने का यह तरीक़ा फ़ासीवादियों का बनाया तथा आजमाया हुआ तरीक़ा है।’

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा पर हाल ही में एक किताब ‘आरएसएस और बहुजन चिंतन’ प्रकाशित हुई है। इस किताब के लेखक हैं कँवल भारती। पढ़िये ईश मिश्र की समीक्षा, क्या है इस किताब में।