हँसें कि न हँसें, इस पर ख़ासी बहस रही है। एक पूरा का पूरा इलाक़ा ही साहित्य और कला में हँसी पैदा करने के कारोबार के नाम पर खड़ा हो गया है। हँसी का उद्योग! हँसी एक अलग सी चीज़ हो गई है इस रसहीन जीवन में। जीवन एकरस या उबाऊ है, इसीलिए हास्य का घोल बनाकर पिलाना पड़ता है या उसका इंजेक्शन देना पड़ता है।
प्रेमचंद- 140, चौथी कड़ी : प्रेमचंद की ईद
- साहित्य
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- 23 Jul, 2020

हास्य अलग रस है भारतीय साहित्य शास्त्र में। हास्य-साहित्य की भी पूरी परंपरा है। हँसी एक तरह से आलोचना भी है। वह ताक़त के दावे को ख़ारिज करने का तरीक़ा है। ‘ईदगाह’ की याद इस प्रसंग में सहज ही आती है। प्रेमचंद का प्यारा हामिद हास्यपूर्ण युक्तियों का सहारा लेता है अपने दोस्तों से बदला लेने का जो उनकी छोटी-सी दुनिया में ताक़त के रिश्ते को उसके पक्ष में पलटती हैं। प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर सत्य हिन्दी की विशेष शृंखला की चौथी कड़ी।
हास्य अलग रस है भारतीय साहित्य शास्त्र में। हास्य-साहित्य की भी पूरी परंपरा है। लेकिन यह जो हास्य का अलग से संगठन किया जाता है या पूरा एक उद्योग ही इसके नाम पर चलता है, इसकी सख़्ती से पड़ताल दार्शनिकों ने की है। यह आम तौर पर कहा जाता है कि हास्य लोगों को क़रीब लाता है और वह हमें आज़ाद भी करता है। हँसते रहिए या हमेशा मुस्कुराइए, इस सकारात्मक लगते नज़रिए में धोखा है। थियोडोर अडोर्नो इसकी तरह से सावधान करते हैं। इस प्रकार आयोजित की गई हँसी हमें साझा इंसानियत का हिस्सा बनने में मदद नहीं करती। लेकिन एक और क़िस्म की हँसी है जिसके ज़रिए अपने आप से अपरिचित यह कुदरत ख़ुद को पहचानना सीखती है। इंसान पर भी अपने आप पर, उसके अपने अपने स्वभाव पर इस तरह की हँसी से एक अलग क़िस्म की रौशनी पड़ती है, वह नई निगाह से ख़ुद को देखता है।