गीता कोड़ा
बीजेपी - जगन्नाथपुर
हार
गीता कोड़ा
बीजेपी - जगन्नाथपुर
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हेमंत सोरेन
जेएमएम - बरहेट
जीत
20 मई को होने वाले शपथ ग्रहण समारोह में भले ही वीना जॉर्ज केरल की नई स्वास्थ्य मंत्री होंगी लेकिन क्या वह पददलित हुई केरल की लोकप्रिय महिला नेता और निवर्तमान स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा का विकल्प बन सकेंगी? पहले नीपा वायरस और कालांतर में कोविड 19 की महामारी से शानदार तरीके से निपटने वाली 'हाईप्रोफ़ाइल' शैलजा को सारी दुनिया में कोरोना विरोधी जंग के 'केरल मॉडल' की नायिका के रूप में देखा जाता था।
इसी लोकप्रियता के चलते हाल के विधानसभा चुनावों में उन्होंने विधानसभा क्षेत्र मत्तनूर (जिला कन्नूर) में अपने यूडीएफ प्रतिद्वंदी को 60 हज़ार से अधिक मतों से धराशायी करके नया इतिहास रचा था।
शैलजा को कैबिनेट से हटाकर विधानसभा में मुख्य सचेतक जैसे ग़ैर महत्वपूर्ण पद पर बैठाने के सीपीएम के निर्णय से न सिर्फ़ राज्य के मतदाता हैरान हैं बल्कि सीपीएम कार्यकर्ताओं के बड़े हिस्से में भी इसे लेकर गहरा रोष है।
सीपीएम के इस ‘तुग़लक़ी फ़ैसले’ को उसकी एक और ऐतिहासिक भूल के रूप में देखा जा रहा है।
मंत्रिमंडल के पुराने साथियों को अलविदा कहने और मुख्यमंत्री को छोड़ नेतृत्व में सभी ताज़ा चेहरों को शामिल किये जाने के एजेंडे को लेकर विगत मंगलवार को हुई राज्य कार्यकरिणी की बैठक में 'बड़े बहुमत' (81 बनाम 7) द्वारा लिए गये निर्णय से पहले उपस्थित सदस्यों को याद दिलाया गया कि वित्त मंत्री टॉमस इसाक सहित निवर्तमान मंत्रिमंडल के 4 सदस्यों को विधानसभा चुनाव तक न लड़ाने का फ़ैसला लिया गया था।
राजनीतिक पर्यवेक्षक इसे मुख्यमंत्री पी. विजयन के कार्यालय के समानांतर किसी अन्य केंद्र के उदय होने की सभी संभावनाओं को मिटा डालने के उनके प्रयासों के रूप में ले रहे हैं। पार्टी पोलित ब्यूरो की पिछली मीटिंग में शैलजा के कामों पर पीठ ठोकने के साथ भविष्य में उन्हें संभावित एलडीएफ़ सरकार में में प्रोन्नत किये जाने की बात कही गयी थी किन्तु गत दिवस के फैसले पर पोलित ब्यूरो भी ख़ामोश है।
चूंकि विजयन स्वयं यह घोषणा करते रहे हैं कि नया कार्यकाल उनके राजनीतिक जीवन का अंतिम राउंड होगा, लिहाज़ा शैलजा की लोकप्रियता का ग्राफ़ उन्हें अगले मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने में लग गया था और ऐसा माना जाता है कि वर्तमान मुख्यमंत्री इसी बात को पचा नहीं पा रहे थे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पार्टी की राज्य कार्यकारिणी में विजयन समर्थकों का बहुमत है। इन समर्थकों का यह कथन कि पूरे मंत्रिमंडल को ही बदला जा रहा है तब ज़्यादा तर्कसंगत साबित होता जब बात सिर्फ़ पुरुष सदस्यों तक सीमित रहती। पिछले मंत्रिमंडल में पहले ही महिला प्रतिनिधित्व का संकट मुंह बाए खड़ा था।
पिछली बार 21 सदस्यीय मंत्रिमंडल में केवल 3 महिलाएं थीं। 33 प्रतिशत महिला प्रतिनिधित्व का ढिंढोरा पीटने वाली सीपीएम के मंत्रिमंडल में शैलजा के हटने से इस बार सिर्फ़ 2 महिलाएं ही (1 सीपीएम और 1 सीपीआई) रह जाएंगी।
हमारे संसदीय लोकतंत्र में महिलाओं का विकास वैसे ही एक बेहद मुश्किल और जटिल प्रक्रिया है, ऐसे में शैलजा जैसी योग्य राजनेत्री और अनुभवी प्रशासक को हटाया जाना एक बेहद दुःसाहसी क़दम है।
निःसंदेह आने वाले समय में सीपीएम को इसके दूरगामी परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। एलडीएफ़ का चुनावी प्रबंधन और उसे मिलने वाली बड़ी जीत में सरकार की कोविड 19 और नीपा वायरस जैसे गंभीर रोगों के ऊपर शानदार सफलता, शैलजा की दक्षता, संकट प्रबंधन और सामान्य व्यक्ति की उन तक पहुँच आदि ऐसे कारण थे जिन्होंने उन्हें हद दर्जे का लोकप्रिय बना दिया और यही लोकप्रियता उनके हटाये जाने का प्रमुख कारण बनी।
34 साल तक पश्चिम बंगाल में शासन करने वाली सीपीएम राज्य के हालिया चुनावों में भरभरा कर ढह गयी। बेशक़ अपनी सफाई में सीपीएम चुनावों को द्विपक्षी सीमित किये जाने का आरोप लगाए लेकिन सवाल यह है कि क्यों वह केवल 4.72 % वोट ही हासिल कर सकी। आख़िर वे कौन-कौन सी ऐतिहासिक भूले थीं जिन्होंने बंगाल में उसका यह हाल किया।
केरल में परंपरा को धतियाते हुए लगातार दूसरी बार चुनाव जीत कर बेशक उसने इतिहास रचा हो लेकिन इस नए इतिहास के रचने वालों को ही जब पार्टी सत्ताच्युत कर देती है तब यह एक चौंकाने वाला तथ्य बन जाता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सीपीएम एक काडर वाली अनुशासित पार्टी है। पार्टी की राज्य कार्यकारिणी ने चुनावों से पहले ही यह फैसला लिया था कि 2 बार से अधिक चुनाव जीतने वालों को इस बार टिकट नहीं दिया जाएगा। इस प्रक्रिया में 4 कैबिनेट मंत्री भी चुनाव से बाहर हो गए थे। इन्हीं फैसलों में एक फैसला समूचे नए मंत्रिमंडल में पुराने सभी मंत्रियों के स्थान पर नए चेहरों को लाने का भी था। सवाल यह उठता है कि तब यह फ़ॉर्मूला मुख्यमंत्री पर क्यों नहीं लागू हुआ?
भले ही विजयन दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं लेकिन कैबिनेट मंत्री के पद पर तो वह सन 96 से 98 तक रह ही चुके हैं। इस तरह मंत्रिपद पर उनका चुनाव तीसरी बार है। इतना ही नहीं, पार्टी के राज्य सचिव पद पर भी वह 1998 से 2015 तक क़ाबिज़ रहे हैं। ज़ाहिर है उनके लिए नियमों में हेराफेरी की गयी।
तब क्या इस तरह की ढील केके शैलजा के लिये नहीं छोड़ी जा सकती थी जिन्होंने कोविड के भीषण संकट काल में शानदार भूमिका का निर्वाह किया और मौजूदा समय में बीमारी के संकट को देखते हुए सरकार में उनकी उपलब्धता बेहद ज़रूरी है?
केरल देश का पहला कोविड संक्रमित राज्य था और यहीं इस वायरस का पहला बड़ा हमला हुआ था। केरल ने चंद महीनों में ही इस बीमारी पर जिस तरह से नियंत्रण किया था उसने पूरे देश और दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया था। इसके पीछे केरल की स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा का पूरी शक्ति के साथ जुटना एक महत्वपूर्ण घटना थी।
लम्बे समय के एलडीएफ और कालांतर में यूडीएफ़ द्वारा गठित 'पब्लिक हेल्थ सिस्टम' ने भी इस दिशा में उनकी ज़बरदस्त मदद की। यहाँ 'जनस्वास्थ्य तंत्र' उस तरह से निष्क्रिय नहीं था जैसा कि देश के अन्य राज्यों में नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया था।
शैलजा टीचर ने अपने स्वास्थ्य सचिव के साथ समूचे राज्य के शहरों और गाँवों के लिए ऐसी व्यापक कोविड रक्षा योजना तैयार की थी जो पहली लहर के समय तो कारगर साबित हुई ही, दूसरी मौजूदा लहर में भी उसने अन्य राज्यों की तरह अपने निवासियों को पतझड़ के पत्तों की तरह गिरने से रोक लिया।
कोविड की पहली लहर में समूचे राज्य में बड़े पैमाने पर न सिर्फ़ कोविड विशेषज्ञ अस्पतालों की श्रृंखलाओं का निर्माण किया गया बल्कि पंचायतों के स्तर पर स्थापित क्लीनिकों को भी कोविड जाँच और आइसोलेशन केंद्र के रूप में विकसित किया गया था।
पहली लहर के दौरान ही जिस तरह ऑक्सीजन का संकट देश भर में मुंह बाए खड़ा हो गया था, केरल ने इतनी बहुतायत में ऑक्सीजन और ऑक्सीजन प्लांट का निर्माण किया कि दूसरी लहर के समय उसका 40 प्रतिशत उत्पादन ही राज्य के रोगियों के काम आ रहा है। शेष उत्पादन को पड़ोसी राज्यों में बाँटने का काम जारी है।
यही नहीं, कई सदियों से केरल में आयुर्वेद की पुरातन परंपरा सक्रिय है। पहली लहर के दरमियान कोविड इलाज के बतौर देश भर में जहाँ रामदेव और उनकी पतंजलि सरीखी आयुर्वेदिक दुकानें लोगों को लूटने का काम करती रही थीं, तब शैलजा टीचर बेहद शांतिपूर्ण तरीके से अपनी इस देशज आयुर्वेद परंपरा का उपयोग गांव और शहरों में लोगों की प्रतिरोध क्षमता को विकसित करने के प्रयोग के रूप में करने में जुटी थीं। कालांतर में हुए अध्ययनों ने उनके इन प्रयोगों के शानदार परिणामों को सारी दुनिया के समक्ष प्रदर्शित किया।
केके शैलजा ने इस महामारी को लेकर जो क़ानूनी कार्रवाइयां की हैं, वह भी बेहतरीन हैं। मीडिया में उनका ज़िक्र और प्रचार होने से न मालूम किन कारणों से रोका गया है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में प्लेग की महामारी से निपटने के नाम पर अंग्रेज हुकूमत ने कतिपय 'महामारी एक्ट' का निर्माण किया था। ये क़ानून महामारी से घबराये और डरे अशिक्षित भारतवासियों को ऊटपटांग और अज्ञानी कार्रवाइयों के प्रति मानवीय तरीके से प्रशिक्षित करने के बजाय साम्राज्यवादी व्यवस्था को और अधिक डराने और धमकाने की क्रूर कार्रवाईयों के असीमित अधिकार प्रदान करते थे। ये सन 1860 में स्थपित 'आईपीसी' की महामारी संबंध क़ानूनी धाराओं के अतिरिक्त थे।
सभी प्रकार के 'महामारी क़ानून' जिला कलेक्टर को असीमित अधिकार देने के साथ-साथ नागरिकों से उनके बचे-खुचे लोकतान्त्रिक अधिकारों को भी छीन लेते थे।
स्वतंत्र भारत में न सिर्फ़ इन महामारी क़ानूनों को महफ़ूज़ रहने दिया गया बल्कि कोरोना काल में अध्यादेश (और बाद में संसद) द्वारा कुछ और नए और कड़े क़ानूनों का भी निर्माण किया गया। ये क़ानून न सिर्फ़ ज़िलाधिकारियों को अनियंत्रित अधिकार प्रदान करते हैं, बल्कि आम जन से उनके सभी लोकतान्त्रिक अधिकार छीन लेने के मामले में भी ये क़ानून पुरानों से कमतर क्रूर नहीं हैं।
शैलजा की पहल पर केरल ने इस मामले में नया प्रयोग किया। वहां इन क़ानूनों में संशोधन करके विधानसभा में महामारी क़ानूनों का बढ़ा अधिकार ग्राम और शहरी पंचायतों को दे दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि देश के अन्य राज्यों में साल भर से ज़्यादा समय से जहाँ सत्तारूढ़ विधायक और सांसद अपनी और अपने मतदाता की सुनवाई न होने और प्रशासन के गूंगा-बहरा होने के क़िस्सों को लेकर खुलेआम रोते दिख रहे हैं, वहीं केरल में सभी फैसले लोकतान्त्रिक तरीके से ग्राम पंचायतें और शहरी नगर पालिकाएं और नगर निगम लेते दिख रहे हैं। इस नए सिस्टम को लेकर लोगों में किस क़दर संतोष था, इसका नज़ारा विधानसभा चुनावों के नतीजों ने दिखा दिया।
कहा जाता है कि शैलजा टीचर की लोकप्रियता मुख्यमंत्री पिन्नराई विजयन को सुहाती नहीं थी। पार्टी सूत्र उनका भविष्य उनके दामाद में देख रहे हैं जो पहली बार विधायक बने हैं। लेफ्ट के पिटारे में ऐतिहासिक भूलों का अम्बार है। वे बेहिचक इन भूलों को कर भी लेते हैं और ध्वस्त होने पर 'आत्मालोचना' के नाम पर उसे स्वीकारने में उन्हें गुरेज़ भी नहीं होता।
भारत की लेफ़्ट पार्टियों में आज़ादी के बाद से ही महिला नेताओं का ज़बरदस्त टोटा रहा है। सीपीएम में तो फिर भी हाल के कुछ दशकों से एकमात्र वृंदा करात दिखाई पड़ जाती हैं, सीपीआई के पास वैसी भी कुछ नहीं हैं।
नक्सली समूहों में ज़रूर गाहे-बगाहे महिला नेतृत्व की गूँज सुनाई पड़ती रहती है, शीर्ष स्तर पर वहां भी कोई महिला नेतृत्व नहीं है। केके शैलजा ज़रूर लेफ़्ट सियासत में ऐसी नेता के रूप में उभर रही थीं जिनके बारे में सारी दुनिया में सुनने को मिल रहा था। माना जा रहा था कि इस बार वह गृह या उस जैसे किसी महत्वपूर्ण मंत्रालय की दावेदार बनेंगी लेकिन जिस असंस्कारगत तरीके से सरकार से उनकी विदाई की गयी है, वह शर्मनाक है।
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