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रोजगार रहित आर्थिक वृद्धि को रोजगारपरक बना पाएगा बजट?

आगामी बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को घरेलू कर्ज का बोझ घटाने, आम लोगों की जेब में कुछ अधिक पैसा पहुंचा कर  टिकने देने तथा रोजगार रहित आर्थिक वृद्धि को रोजगारपरक उत्पादन व्यवस्था में बदलने पर जोर देना होगा। जाहिर है कि इसके लिए उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शह पर एक दशक से अपनाई जा रही आर्थिक नीतियों में आमूल चूल बदलाव करना पड़ेगा।

अपनी नीतियां बदले बिना केंद्र सरकार के लिए देष की अर्थव्यवस्था में निचले स्तर पर फैली मंदी और बेकारी से पार पाना असंभव होगा। निचले स्तर पर मंदी का ये आलम साल 2019 के आम चुनाव के बाद से ही तारी है। माली साल

2019-20 में जीडीपी में करीब 4.5 फीसद की मामूली वृद्धि दर निचले स्तर पर व्याप्त मंदी का पर्याप्त सबूत है। उसके बाद कोविड महामारी से रसातल में पहुंची जीडीपी ने जो आम आदमी की कमर तोड़ी है उससे वो अब तक नहीं उबर पाया। इसीलिए जीएसटी में अपने 67 फीसद योगदान के बावजूद देश की आधी से ज्यादा आबादी मासिक पांच किलोग्राम मुफ्त राशन पर अपना पेट पालने को मजबूर है।

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निचले स्तर पर मंदी की तस्दीक बचत दर के करीब छह फीसद तक गिर जाने से भी हो रही है, ऊपर से घरेलू कर्ज जीडीपी के अनुपात में 40 फीसद के उच्चतम स्तर पर मंडरा रहा है। इससे भारतीय रिजर्व बैंक भी चिंतित है जबकि केंद्र सरकार करों से रिकॉर्ड उगाही और जीडीपी में उल्लेखनीय वृद्धि का दावा करते नहीं अघा रही। 

जीडीपी के अनुपात में शुद्ध बचत दर छह फीसद तक औंधे मुंह गिर जाने का रिकॉर्ड बना रही है जबकि यूपीए के कार्यकाल में शुद्ध बचत दर 25 से 30 फीसद के बीच सुर्खरू थी। कर्ज के बढ़ते बोझ में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लिया जाने वाला कर्ज भी शामिल है।

केंद्र सरकार अधिक मात्रा में कर्ज लेने को बुनियादी ढांचे के फटाफट निर्माण के लिए जरूरी बताकर सही ठहरा रही है। विडम्बना ये कि उस बुनियादी ढांचे यानी पुलों, राजमार्गों, रेलवे स्टेषनों, नई ट्रेनों, हवाई अड्डों आदि को चलाने का जिम्मा सरकार लगातार निजी कंपनियों को सौंप रही है। इस वजह से उनसे होने वाली नियमित आमदनी भी कंसेशनरों की ही जेब में जा रही है।

केंद्र सरकार के हाथ में उनकी नीलामी अथवा ठेके देने से मिली एकमुश्त राशि ही आती है। उस राशि को सरकार अपना राजकोशीय घाटा पाटने में झोक रही है जिससे मूल अदा हो नहीं रहा और ब्याज का दायित्व लगातार बढ़ रहा है। इसलिए कर्ज और ब्याज का बोझ सरकार अर्थात आम आदमी की कमर पर लगातार बढ़ने से वह महंगाई और बेरोजगारी की मार सहित तितरफा पिस रहा है।

इस कुचक्र में जहां आम आदमी की आमदनी लगातार घट रही है वहीं खर्चेों का दबाव बढ़ने से वो अपनी बचत तोड़ने को मजबूर है। यह अर्थव्यवस्था में निचले स्तर पर मंदी का द्योतक है। बचत दर में जबरदस्त गिरावट से साफ है कि

दिहाड़ी मजदूरों को नियमित काम मिलना मुहाल है। इसलिए वे अपनी बचत को तोड़ कर गुजारा करने को मजबूर हैं। जिससे उनकी खरीद क्षमता घटी है और उसी से खपत भी घट रही है। इसलिए अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती फिलहाल घरेलू मांग में तेजी लाना है। इसके उपाय बजट में करना जरूरी है। बचत दर में इतनी जबरदस्त गिरावट के लिए जिम्मेदार पिछले दस साल में घटे अनेक आर्थिक कारण हैं। इनमें प्रमुख हैं नोटबंदी, अनाप शनाप जीएसटी दरें, कोविड महामारी, अंधाधुंध लॉकडाउन एवं अर्थव्यवस्था में रोजगार रहित वृद्धि।

रोजगार रहित वृद्धि की सबसे बड़ी वजह बुनियादी ढांचे सहित उद्योगों एवं वितरण प्रणालियों में निर्माण एवं उत्पादन प्रक्रियाओं में बड़े पैमाने पर मशीनों का प्रयोग बढ़ना है। आजकल पुल निर्माण में गिट्टी और सीमेंट एवं रेत मिलाकर मसाला बनाने का सारा काम मशीनों से हो रहा है। उस रेडीमेड मसाले को विशाल सीमेंट मिक्सर उत्पादन स्थलों पर सीधे ले जाकर खांचों में भर देते हैं। इस प्रकार इन प्रक्रियाओं में आज से एक दशक पहले जहां बड़ी संख्या में लोग हाथ से काम करते थे अब मशीनीकरण ने उनकी संख्या बहुत सीमित कर दी है।

इसी तरह कार और मोटर साइकिलों की असेम्बली लाइन में अब ज्यादातर काम रोबोट द्वारा किया जाता है जिसकी वजह से कुशल कारीगर बेरोजगार हो गए है। ऐसे ही दवा उद्योग में भी मनुष्यों के हाथ से होने वाला काम तेजी से मशीनों एवं रोबोट के हवाले हो रहा है। धीरे-धीरे खुदरा ऑनलाइन व्यापार में भी माल छांटने, रैक जमाने और पैकिंग आदि का मनुष्यों द्वारा किया जाने वाला काम रोबोट द्वारा किया जाने लगा है। अमेजन से लेकर फ्लिपकार्ट, रिलायंस, जिओ मार्ट, बिग बास्केट, ब्लिंक इट,जेप्टो, स्विगी, जोमैटो आदि तमाम ऑनलाइन खुदरा व्यापार कंपनियां ऑर्डर वाले सामान को घर-घर पहुंचाने के लिए मनुष्य की जगह ड्रोन का सहारा लेने की प्रक्रिया में है। इसलिए उस सामान को फिलहाल घरों तक पहुंचाने में रोजगार पा रहे लाखों गिग वर्करों के सिर पर बेरोजगारी  की तलवार लटक रही है।

ताज्जुब ये कि सालाना दो करोड़ रोजगार देने के वायदे पर सत्तारूढ़ हुए प्रधानमंत्री मोदी, उनकी एनडीए सरकार और स्वदेशी जागरण मंच एवं भारतीय मजदूर संघ जैसे दर्जनों आनुश्ंगिक संगठन मुंह में दही जमाये हुए हैं।


भारत जैसे दुनिया में सबसे अधिक करीब एक अरब, 42 करोड़ आबादी वाले देश में उत्पादन एवं निर्माण प्रक्रियाओं का अंधाधुंध मशीनीकरण गंभीर सामाजिक असंतोष का कारण बन सकते हैं। हमारी आधी से अधिक आबादी 15 से 35 साल उम्र के युवाओं की है जिसके लिए रोजगारों की संख्या साल दर साल बड़ी तादाद में बढ़ाया जाना आवश्यक है। पिछले दस साल में युवाओं को वांछित तादाद में रोजगार देने में नाकाम प्रधानमंत्री मोदी शायद इसीलिए उन्हें पकोड़े तलने और चाय पिलाने संबंधी व्यापार करने की सलाह दे रहे हैं। 

हालांकि हालिया आम चुनाव में युवाओं एवं देश के सबसे गरीब तथा वंचित तबके ने मोदी एवं बीजेपी के 400 पार के नारे की हवा कस कर निकाली है। मतदाता ने बीजेपी को महज 240 तथा एनडीए को 294 लोकसभा सीटों पर अटका कर प्रधानमंत्री मोदी की आंखे खोलने की कोशिश की है। इसीलिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से आगामी बजट में युवाओं ने सरकारी पदों पर बड़े पैमाने पर भर्तियां खोलने तथा सार्वजनिक निवेश बढ़ाकर लाखों नए रोजगार पैदा करने संबंधी नीतियों की घोषणा की उम्मीद लगा रखी है।

 वित्त मंत्री के लिए सामाजिक एवं आर्थिक विषमता की सबसे चौड़ी हो चुकी खाई को पाटने के ठोस उपाय करना भी जरूरी हैं। बेरोजगारी और महंगाई सुरसा के मुंह की तरह लगातार बढ़ती जा रही है। देश में अस्सी करोड़ आबादी मुफ्त सरकारी अनाज के सहारे पेट पालने को मजबूर है क्योंकि धन्नासेठों को काॅरपोरेट टैक्स की दरों में मिली ऐतिहासिक छूट के बावजूद वो देश में पूंजी निवेश के बजाए विदेशों में निवेश बढ़ा रहे हैं।

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सीएमआईई के अनुसार बेरोजगारी इस समय देष में औसतन नौ फीसद से अधिक है। मोदी की एनडीए सरकार हालांकि जीएसटी अर्थात करों की रिकार्ड वसूली के दावे करते नहीं अघा रही मगर लोगों को यह नहीं बता रही की उसमें से 67 फीसद रकम यानी करीब एक लाख करोड़ रूप्ए की चोट देश के 50 फीसद गरीब तबके के लोगों की जेब को झेलनी पड़ रही है। देश में आर्थिक विषमता का आलम ये है कि 40 फीसद दौलत महज एक फीसद अमीरों की मुट्ठी में कैद है। 

ऐसे चुनौतीपूर्ण हालात में मोदी की एनडीए सरकार क्या पूंजीपतियों एवं अमीर वर्ग पर अलग से कर लगाकर वो पैसा रोजगार पैदा करने वाली परियोजनाओं में लगाने की हिम्मत दिखा पाएगी। प्रधानमंत्री के पिछले दस साला रिकार्ड को देखते हुए इसके आसार तो कम हैं मगर चुनाव में बीजेपी की करारी शिकस्त के सबक और अमीर परस्ती के आरोप से उबरने के लिए बजट में ऐसा कर गुजरना कतई अप्रत्याशित नहीं होगा।

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क़मर वहीद नक़वी
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