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शेयर बाजार को किस बात का डर है?

चौथे दौर के मतदान के प्रारम्भिक आँकड़े पिछले चुनाव से नीचे ही हैं, लेकिन इस बार का अंतर पहले दो दौर जैसा नहीं रहा। अब चुनाव आयोग अंतिम आँकड़े के नाम पर कौन सा मतदान प्रतिशत दिखाता है, इस पर सबका ध्यान है लेकिन शेयर बाजार में वैसी बेचैनी नहीं है जैसी पहले दो दौर के मतदान के बाद दिखी थी। यह बेचैनी चौथे दौर तक खत्म नहीं हुई है लेकिन अब बाजार में लाखों करोड़ की पूंजी टूटने की खबर नहीं आ रही है।

मई के पाँच ट्रेडिंग दिनों में ही निवेशकों के पंद्रह लाख करोड़ रुपए डूब जाने का हिसाब लगाया जा रहा था। वैसे, यह हिसाब मायावी भी है और वास्तविक भी लेकिन अर्थव्यवस्था और आर्थिक प्रशासन के प्रति आर्थिक मामलों में समाज के सबसे सचेत जमात के नज़रिया को बताता है और आर्थिक विकास की दिशा भी दिखाता है। इस हफ्ते की शुरुआत में गिरावट का सिलसिला थम गया था लेकिन बाजार का भरोसा लौट नहीं रहा था। सोमवार को बाजार का भय या अस्थिरता मापने वाला सूचकांक वीआईएक्स हजार अंक ऊपर था जिसे 19 महीनों का उच्चतम माना गया। अगले दिन बाजार दो सौ अंक चढ़कर खुला भी लेकिन भय खत्म नहीं हो रहा है।

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अब बाजार का भय दूर करने के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की जगह गृह मंत्री अमित शाह और विदेश मंत्री जयशंकर बयान क्यों दे रहे हैं, इसकी सफाई तो वही लोग देंगे लेकिन यह कहने में हर्ज नहीं है कि बाजार का भरोसा नहीं जम रहा है। अमित शाह ने तो भाजपा के चार सौ पार के नारे को दोहराया भी। अर्थात उन्हें भी लगा रहा है कि गिरावट की वजह चुनाव के संकेत और उसमें भी मतदान में कमी में छुपा है। पर यह मानना बचकानापन होगा कि सरकार की तरफ़ से वित्त मंत्री कुछ नहीं बोल रही हैं तो सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है और सरकार में तथा चुनाव में नंबर दो की हैसियत में दिख रहे अमित शाह के बयान को ही अपना काम माने बैठी है। 

सरकार इस गिरावट को थामने और बाजार को सहारा देने की भरपूर कोशिश कर रही है। यह साफ़ हिसाब है कि मई महीने में अब तक अगर विदेशी संस्थागत निवेशकों ने बाजार से 22800 करोड़ रुपए की पूंजी निकाली है और बाहर से निवेश आने का क्रम एकदम थम सा गया है तो हमारी अपनी सरकारी वित्तीत संस्थाओं ने बाजार में 23000 करोड़ रुपए की खरीद इसी अवधि में की है। अर्थात सामान्य ढंग से नफा नुकसान संभाल लिया गया है।

सरकार की ऐसी व्यावहारिक मुस्तैदी बाजार को निश्चिंत करनी चाहिए थी, लेकिन जैसा पहले कहा गया है, बाजार में अनिश्चितता या भय को बताने वाला सूचकांक अपने शिखर पर है। और विदेश मंत्री तथा गृह मंत्री के संग संग एचएसबीसी इंडिया के भारतीय प्रमुख हितेन्द्र दवे की सफाई थी कि यह गिरावट विदेशी निवेश के बाहर के बाजारों में जाने से आई है। यह बात एक हद तक सही भी है क्योंकि चीन और हाँग कांग के वित्तीय बाजार में इधर काफी तेजी देखने में आ रही है। लेकिन यह व्याख्या आंशिक सच ही है।
हमारी अर्थव्यवस्था के आँकड़े हाल के वर्षों में अविश्वसनीय बने हैं, उनके जुटाने का काम बहुत ढीला-ढाला रहा है और कई बार तो जुटाए गए आँकड़े जारी नहीं किए गए लेकिन इधर चुनाव के बीच भी हमारी अर्थव्यवस्था को लेकर अच्छे-बुरे, दोनों किस्म के रहे हैं।
अगर टेस्ला वाले एलन मस्क ने बड़ा निवेश करने की मंशा से भारत यात्रा का कार्यक्रम टाला है (हालांकि इसे भी अनेक लोग चुनावी अनिश्चितता और मोदी जी द्वारा ऐसे निवेश के फैसले का चुनावी लाभ लेने का डर मान रहे हैं) तो महंगाई के मामले में सूचकांक अच्छी खबर दे रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल जैसी चीजों की कीमत कम होने का लाभ हमें मिलेगा। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का मुनाफा कई गुना बढ़ा है। अर्थव्यवस्था के बाकी क्षेत्रों से भी मिली जुली खबरें आ रही हैं और विकास दर को लेकर तो सरकार के दावे बहुत ऊंचे हैं।
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इन सबके बावजूद न बाजार स्थिर हो पा रहा है और न ही निश्चिंत। और अमित शाह, जयशंकर और दवे जैसों के कथन से हटकर अगर बाजार के खिलाड़ियों की आम धारणा और फुसफुसाहट को लें तो साफ लगेगा कि चुनाव के नतीजों को लेकर बाजार के मन में गंभीर संशय है। और जब मतदान का प्रतिशत गिरा तो उसने इस संशय को और गहरा किया कि एनडीए को आसान जीत मिलती नहीं लगती। और जब एक बार संदेह घेर ले तो वह गहराता जाता है। इसमें भाजपा नेताओं द्वारा बीच चुनाव में मुद्दे बदलने का प्रयास, विपक्ष का ज्यादा मजबूत होकर उभरना, पहली बार कांग्रेस का घोषणापत्र आम लोगों में चर्चा का विषय बनना और संविधान तथा आरक्षण को लेकर दलित समाज में डर समाने की खबर भी अपनी अपनी भूमिका निभाते गए हैं। इसलिए बाजार अगर लुढ़कता जा रहा है और उसमें भय और अनिश्चितता रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुँच चुकी है तो यह निश्चित रूप से भाजपा के लिए चिंता की बात है। इस बाजार में देशी बचतकर्ताओं का हजारों करोड़ झोंककर गिरावट रोकने का प्रयास भी चिंता को बढ़ाता है लेकिन नतीजे आने तक इस पर रोक लगाना किसी के लिए संभव नहीं है।

यहाँ याद करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जब इंडिया शाइनिंग के नारे के बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार हार गई थी तब बाजार की प्रतिक्रिया आज से भी ज्यादा डरावनी थी। और इस डर में यूपीए-1 सरकार में कम्युनिस्टों की भागीदारी/समर्थन से पैदा यह वास्तविक डर था कि कहीं आर्थिक नीतियों में बड़ा बदलाव न हो जाए। आज कम्युनिस्ट वैसी स्थिति में नहीं हैं और कांग्रेस उदार आर्थिक नीतियों के मामले में भाजपा से कम नहीं है। बल्कि आर्थिक ही नहीं किसी भी बड़ी नीति के मामले में अंतर नहीं है। तभी तो बहुत हल्की और छोटी बातों की राजनीति ही चुनाव में दिखती है। लेकिन बाजार ऐसी ही छोटी और हवाई बातों पर भी चलता है। यह ठोस भी है और मायावी भी। पर इसके संकेत झूठे नहीं होते।

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अरविंद मोहन
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