‘शताब्दी में ख़ास बजट’ कहकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने पहली फ़रवरी को जो वित्त विधेयक प्रस्तुत किया उसमें किसी किसी क़िस्म के ग़रीब समर्थक, किसान समर्थक, महिला समर्थक और गांव समर्थक दिखावे की भी ज़रूरत नहीं दिखी। उसमें सबसे बड़ी रियायत के नाम पर 75 पार के बुजुर्गों को, अगर उनकी एक रुपए की भी आमदनी नहीं होती और उन्होंने सरकार द्वारा तय बैंकों में ही अपने खाते रखे हैं तब, आयकर का रिटर्न भरने से छूट ही है या फिर सोना-चान्दी सस्ता होना (अगर आपमें पचास हज़ार प्रति दस ग्राम सोना खरीदने की क्षमता बची हो) है। वरना लगभग अस्सी लाख गाड़ियों को स्क्रैप में बेचने, पूरे बीमा क्षेत्र को विदेशी कम्पनियों के हवाले करने, बैंकों के सारे एनपीए और डूबे कर्ज को एक प्राधिकार के हवाले करके उनको सारी जबाबदेही से मुक्त करने और सैनिक स्कूल तक को विदेशी निवेशकों के हवाले करने, सरकारी परिसम्पत्तियों को बेचकर मोटी रक़म जुटाने, शेयर बाज़ार की कमाई को हर बाधा-बन्धन से मुक्त करने और चुनाव वाले राज्यों के लिए बीजेपी को लाभ देने वाली घोषणाओं को करने में कोई झिझक नहीं दिखाई गई है।
और जैसे यह भी कम हो, पन्द्रहवें वित्त आयोग की अभी अभी आई सिफारिशों को दरकिनार करते हुए केन्द्रीय राजस्व में राज्यों के हिस्से का लगभग ग्यारह फ़ीसदी पैसा न देना और पेट्रोलियम पदार्थों पर उत्पाद शुल्क घटाकर उसी रक़म को उपकर के रूप में अपनी जेब में डालने की राजनैतिक तानाशाही भी दिखाई। और सब से ख़ास यह हुआ है कि जिस कोरोना काल में अर्थव्यवस्था सबसे खस्ताहाल रही, आमदनी और ख़र्च में दसेक फ़ीसदी का फ़ासला रह गया (यह सरकारी अनुमान है, अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्री घाटा पन्द्रह फ़ीसदी तक मानते हैं) उसमें भी सड़क समेत कथित संरचना क्षेत्र में भारी निवेश की योजनाओं की घोषणा के साथ रिकॉर्ड 6.8 फ़ीसदी राजकोषीय घाटे का अनुमान भी वित्त मंत्री ने बता दिया। और बाक़ी लोग जो कहें शेयर बाज़ार कुलांचे मार रहा है।
शेयर बाज़ार तो कोरोना की पस्ती के बीच भी उछलता रहा है और सेंसेक्स पचास हज़ार के आँकड़े तक पहले ही पहुँच गया था। लेकिन जब पिछले दो महीनों में बाज़ार का पूंजीकरण दसेक लाख करोड़ बढ़ने और अर्थव्यवस्था की रफ्तार से इस कमाई का मेल न खाने के आधार पर शेयर बाज़ार की कमाई पर कर लगाने, नाजायज पैसे को बाज़ार में लाने का मुख्य स्रोत, पी-नोट्स पर किसी तरह का अंकुश लगाने और किसान आन्दोलन के दबाव में उनके हक में या कोरोना के चलते आम लोगों को राहत देने वाले फ़ैसलों का दबाव होने की बात से बाज़ार कुछ सहमा था। लेकिन जैसे ही निर्मला जी ने बिना झिझक कारपोरेट क्षेत्र के पक्ष में फ़ैसलों की झड़ी लगाई, पी-नोट्स पर जुबान भी न खोली, नए कर लगाने की कौन कहे डिवेडेंट पर कर लगाने की व्यवस्था में भी ढील देने, कैपिटल गेन में लाभ देने जैसी घोषणाएँ करनी शुरू कीं, बाज़ार उछलने लगा और उसका उछलना अभी तक जारी है क्योंकि बजट के प्रावधानों का मतलब समझते जाने के साथ अमीर और पूंजी वाले जमात का उत्साह भी बढ़ता जा रहा है।
अभी तक किसी भी सरकार ने ग़रीबों से बेपरवाही और अमीरों तथा कारपोरेट जगत से यारी दिखाने में ऐसा दुस्साहस नहीं किया था जितना इस बजट में हुआ है। मध्यवर्ग और ग़रीबों के लिए एक भी लाभ घोषित नहीं हुआ है।
और सबसे डरावना यह फ़ैसला है कि स्कूली शिक्षा का बजट पाँच हज़ार करोड़ घटा दिया गया। पिछले साल विदेशी विश्वविद्यालयों को आने की इजाज़त देने के बाद इस बार सैनिक स्कूल, आदिवासी और पहाड़ी क्षेत्र के स्कूलों को निजी भागीदारी में सौंपने का फ़ैसला हो गया।
अगर इस बजट में एक उल्लेख की बात है तो स्वास्थ्य का बजट दो गुने से भी ज़्यादा होना। पर ग़ौर से देखने पर लगेगा कि इसका भी बड़ा हिस्सा पानी की आपूर्ति, स्वच्छता मिशन भाग दो और टीकाकरण का है, बदहाल स्वास्थ्य सेवा और अस्पतालों पर निवेश दिखावटी ही है। और अगर देश भर में टीकाकरण के ख़र्च के अनुमान और बजट के भारी प्रावधान को देखें तो साफ़ लगता है कि देश भर के लोगों को मुफ़्त टीका नहीं मिलने जा रहा है। यह चुने हुए समूहों और इलाक़ों में दिया जाएगा या फिर राज्यों को अपने ख़र्च पर अभियान चलाना होगा।
यही नहीं, इस कोरोना के आफतकाल में जो मनरेगा बेरोज़गार ग़रीब लोगों (कम से कम इस योजना में कोई अमीर या पैसे वाला बेरोज़गार काम नहीं कर रहा होगा) का सहारा बना और जिस पर सरकार ने उचित ही आवंटन राशि बढ़ाई थी, उसे महा बेरोज़गारी वाले इस दौर में इस बार कम कर दिया गया है।
इंफ्रास्ट्रक्चर
यह सही है कि इंफ्रास्ट्रक्चर के काम से रोज़गार बढ़ेगा, अर्थव्यवस्था को लाभ होगा। लेकिन यह कब तक होगा और कितना लाभकर होगा, यह पूरी तरह अनिश्चित है और इस सरकार का रिकॉर्ड ऐसा है कि घोषित योजनाओं पर काम हो यह भरोसा करना भी मुश्किल है। बेचारे बेरोज़गार लोग क्या इतना इंतज़ार कर सकते हैं? अगर काम का बोझ बढ़ने और वेतन कटौती वाले हिसाब को भूल भी जाएँ तो क़रीब डेढ़ करोड़ लोग कोरोना से बेरोज़गार हुए हैं।
मुश्किल यह है कि वापस रोज़गार पाने या नया काम करने के मामले में पुरुष और महिलाओं के बीच तीन गुने का फ़ासला है। ऐसा ही शहरी और ग्रामीण रोज़गार के मामले में भी अंतर है।
पर जो मुश्किल समझ से परे है वह किसानों और खेती की उपेक्षा का है जो आन्दोलित भी हैं और जिन्होंने कोरोना काल में देश को सहारा दिया है। आर्थिक विकास की दर अभी तक जब भी ऋणात्मक होती थी तो खेती ख़राब होने या सूखा के चलते हुई थी। यह पहला मौक़ा है जब खेतिहर लोग सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज देने के लिए मारामारी कर रहे हैं। सरकार चालू बजट में भी खेती के लिए तय रक़म ख़र्च नहीं कर सकी थी और इस बार उसने बजट कम कर दिया है।
दूसरी ओर साढ़े पाँच लाख करोड़ के पूंजीगत निवेश का प्रस्ताव थोड़ा आकर्षक लगता है पर उस रोज़गार के हिसाब से या आम आदमी की आर्थिक गतिविधियों को गति देने के हिसाब से शून्य है क्योंकि सारी योजनाएँ बरसों बरस में पूरी होंगी और रोज़गार का कोई ठोस भरोसा नहीं देतीं। हाँ सरकार वोट बटोरू मुफ्त राशन, मुफ्त गैस और संसाधनों के चुनावी इस्तेमाल को बढ़ाती लगती है।
तीन काम हुए लगते हैं- वोट दिलाऊ ख़र्च, अपने दुलारे कारपोरेट वर्ग के लिए भारी भरकम लाभ की योजनाएँ और अपनी सहूलियत और शान का ख़र्च।
बजट भाषण में इस बार रक्षा शब्द नहीं आया। और आश्चर्य नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोलियम के सस्ता होने का लाभ ग्राहकों को न देकर मोदी सरकार ने सात साल में जो क़रीब तेरह चौदह लाख करोड़ रुपए जुटाए हैं लगभग उतनी ही रक़म मुफ्त राशन और मुफ्त गैस बाँटने जैसी योजनाओं पर ख़र्च किया है।
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