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बिहार: लालू और नीतीश के जंगल राज के बीच लड़ाई!

कहा जा रहा है कि बड़ी कुशलता से महागठबंधन बनाने, अपने नेतृत्व पर मोहर लगवाने के बाद तेजस्वी ने जिस तरह से चुनाव का एजेंडा बदला है और खुद उनकी सभाओं में नौजवानों की जैसी भीड़ उमड़ी है उसके बाद काफी सारे लोगों को फिर से जंगल राज याद आने लगा है। ऐसा ‘काउंटर रिएक्शन’ चुनाव में अनजान नहीं है। बीजेपी और संघ परिवार ऐसा रिएक्शन कराने में उस्ताद हैं। 
अरविंद मोहन

बिहार विधानसभा चुनाव के प्रचार के पहले दौर में हुई जनसभाओं में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा उठाया गया धारा 370 की समाप्ति और कश्मीर का मसला कहीं भी सुगबुगाहट पैदा करता न दिखा तो मतदान के दिन उन्होंने अपनी दरभंगा की लगभग सूनी सभा में राम मंदिर और ‘जंगल राज का युवराज’ जैसे नए मुद्दे उछाले। नेता इस तरह कई मुद्दे उछालकर जनता का मूड टटोलते हैं और जो बात कुछ जमीन पकड़ती है उसे आगे बढ़ाते चलते हैं। 

दरभंगा की सभा में भीड़ नहीं थी और मोदी जी का भाषण बहुत छोटा था। इसमें से राम मंदिर पर तो कोई सुगबुगाहट नहीं हुई लेकिन जंगलराज की बात मीडिया और बिहार की राजनैतिक चर्चा में जिस तरह आई वह उनकी समझ और ‘कोर्स करेक्शन’ की क्षमता को बताती है। 

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अब भले ही यह कहा जाए कि 2015 के चुनाव में भी बीजेपी ने ऐसा ही करेक्शन किया था और पिट गई थी लेकिन इस मुद्दे का चर्चा में आ जाना बताता है कि कहीं न कहीं मोदी जी अपने मतदाताओं और संशय में चल रहे अनिश्चित मतदाताओं के मन में चल रही बात को उठाने में सफल रहे हैं।

जंगल राज का वक़्त

जंगल राज की चर्चा तुरंत तेजस्वी यादव और फिर टीवी चैनलों ने पकड़ी। ऐसी ही एक चर्चा में जब इस लेखक से भी अपने निजी अनुभव की बात पूछी गई तो अचानक यादों का पिटारा खुल गया। इसमें सबसे पहले भागलपुर में अपने एक नजदीकी रिश्तेदार की हत्या का मामला आया जिसे दफ्तर के पैसे ले जाते हुए बैंक के सामने भरी दोपहर में मार दिया गया। 

बड़ी मुश्किल से केस में कुछ नाम आए पर अदालत जाते समय सारे गवाह मुकर गए और जवान विधवा अपनी दो बच्चियों के साथ जीवन भर के लिए दुखी रह गई। दूल्हा भारतीय जीवन बीमा में कार्यकर्ता था और काम के दौरान मारा गया था, इसलिए विधवा को नौकरी मिल गई और जीवन कैसे भी खिसकता गया। अब तो एक बच्ची पढ़-लिखकर नौकरी में आ गई है। 

ऐसे कई मामले भी ध्यान में आए जब अपराध की शिकायत सीधे सीएम हाउस करने की स्थिति वाला व्यक्ति मिल गया और फिर दन से मामला सुलझ गया, प्रशासनिक और पुलिस की मुस्तैदी से नहीं मुख्यमंत्री निवास के कर्णधारों के इशारे से। और इन कर्णधारों में लालू जी के दो साले और राबड़ी जी के भाई लोग भी थे, जिनकी सम्पत्ति के किस्से भी खूब चले। अपराधी विधायक और मंत्रियों के अपने-अपने ‘स्फ़ेयर ऑफ़ इंफ़्लुएंस’ थे। और जाहिर तौर पर यह याद अकेले साठ साल वाले इस लेखक भर को नहीं होगी।

कहा जा रहा है कि बड़ी कुशलता से महागठबंधन बनाने, अपने नेतृत्व पर मोहर लगवाने के बाद तेजस्वी ने जिस तरह से चुनाव का एजेंडा बदला है और खुद उनकी सभाओं में नौजवानों की जैसी भीड़ उमड़ी है उसके बाद काफी सारे लोगों को फिर से जंगल राज याद आने लगा है।

ऐसा ‘काउंटर रिएक्शन’ चुनाव में अनजान नहीं है। बीजेपी और संघ परिवार ऐसा रिएक्शन कराने में उस्ताद है। 

वोट देते समय दाढ़ी-टोपी वालों, बुर्केवालियों की पांत लगने के नाम पर अपने हिन्दू मतदाताओं को तत्काल सक्रिय करवाने में वे इस तरह के तरीक़े अपनाते ही हैं। पर सीएसडीएस का ताजा सर्वे भी बताता है कि तीस से नीचे के नौजवानों में तेजस्वी का समर्थन जितना ज्यादा है उसी हिसाब से तीस के ऊपर वालों में एनडीए का समर्थन है। 

अब उम्र के हिसाब को इस राबड़ी लालू राज के हिसाब से मिलाएं तो तसवीर साफ होगी कि जंगल राज की बात मोदी ने क्यों कही और कश्मीर तथा राम मंदिर की तुलना में जंगल राज के मुद्दे को चर्चा क्यों मिलने लगी है। जाहिर तौर पर लगता है कि यह एक दुखती रग है।

लेकिन नौजवान और काफी सारे बड़े, जिनमें वे अगड़े भी शामिल हैं जिनको दूसरे पाले में बताकर लालू प्रसाद यादव ने अपना पिछड़ा राज कायम किया और चलाया तथा जो पिछड़ा राज आज भी अनवरत चलता जा रहा है। 

देखिए, बिहार चुनाव पर चर्चा- 

नीतीश की सभाओं में हंगामा

किसी भी प्रदेश में इतना लम्बा पिछड़ा राज नहीं चला है और अगर इस बिहारी पिछड़ा क्रांति का प्रथमार्द्ध जंगल राज के साए वाला है तो उत्तरार्द्ध में ऐसा क्या हुआ है कि लोग नीतीश कुमार की विदाई को एक नम्बर महत्व दे रहे हैं और उनके ‘सुशासन’ के दावे को खारिज करते हुए खुद उनकी सभाओं समेत उनके लोगों की सभाओं में हंगामा कर रहे हैं। 

और सामान्य लोगों की कौन कहे कल तक उनकी साथी रही एलजेपी और आज भी साथी बनी बीजेपी के लोग भी उनको हरवाने में लगे हैं। यह सवाल नीतीश कुमार के मन में होगा और वे जबाब दे रहे होंगे।

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नीतीश का जंगल राज?

पर हमें साफ लगता है कि नीतीश कुमार ने एक जंगल राज का अंत करके दूसरा जंगल राज स्थापित कर दिया है जिसमें आम लोगों की सुनवाई नहीं है, आम लोगों का ख्याल कम है। जिसकी संवेदनहीनता का सबसे बड़ा प्रमाण कोरोना काल में घर लौटते मजदूरों के साथ किया गया व्यवहार है। 

इसमें पहला दोष तो परम ज्ञानी मोदी जी का ही था जिन्हें देश के करोड़ों प्रवासी मजदूरों की फिक्र नहीं थी और लॉकडाउन का ‘श्रेय’ लूटना ज्यादा बड़ा काम लगा। लेकिन किसी भी राज्य से ज्यादा दुर्गति बिहारी मजदूरों की हुई और किसी भी राज्य से ज्यादा अनुपात में बिहारी प्रवासी ही मजदूर बने हैं। इससे खुद बिहार सरकार की दुर्गति भी हो गई और सुशासन के दावे की पोल खुली। 

पलायन कम होने के दावे तो धरे रह गए, राज्य में 15 साल में एक भी उद्योग न लगने (लालू-राबड़ी राज में पुराने उद्योग बंद हुए, उद्यमी भागे थे) और सिर्फ कमीशन वाले निर्माण का काम होने की बात भी सामने आई। 

हर योजना में अधिकारियों, कर्मचारियों, ग्राम प्रधान से लेकर नेताओं की कमीशनखोरी और भ्रष्टाचार का नेटवर्क बनने, बालिका गृह की लड़कियों का शोषण और सृजन जैसे संगठित अपराध का नया जंगल राज बनने की सच्चाई भी सामने आई।

मंजू वर्मा को टिकट

इसमें बीजेपी नेता सुशील मोदी की संलिप्तता का शक भी हुआ और मुख्यमंत्री के करीबी लोगों का नाम भी आया। हद तो तब हो गई जब मुज़फ्फरपुर कांड के चलते सरकार से हटाई गई मंत्री को चुनाव में टिकट दे दिया गया। डीजीपी गुप्तेश्व पांडेय सुशांत राजपूत कांड में सारा कुकर्म करके चुनाव में उतरने पहुंच गए और ‘आंत में दांत’ जैसे जुमले से विभूषित मुख्यमंत्री जी ने उन्हें टिकट ही नहीं दिया। 

सुशासन का जातिवाद 

चोरी और व्यवस्थित लूट वाले अधिकारियों के कथित संरक्षक की अधिकारी बेटी ने गोली चलवाकर जले पर नमक छिड़क दिया। लालू जी का जातिवाद नंगा था। सुशासन का जातिवाद भी खतरनाक माना जाता है। सो, देखना है कि लोग तेजस्वी के साथ पुराने जंगल राज को जोड़कर कोई फ़ैसला देते हैं या नए जंगल राज के ख़िलाफ़। प्रधानमंत्री ने होशियारी से दांव मारा है। देखिए कौन चित होता है।

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अरविंद मोहन
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