'भारत छोड़ो आन्दोलन'
अंग्रेजों से भारत तुरंत छोड़ने का यह प्रस्ताव कांग्रेस द्वारा एक ऐसे नाजुक समय में लाया गया था जब दूसरे विश्वयुद्ध के चलते जापानी सेनाएं भारत के पूर्वी तट तक पहुँच चुकी थी और कांग्रेस ने अंग्रेज शासकों द्वारा सुझाई 'क्रिप्स योजना' को खारिज कर दिया था।'भारत छोड़ो' प्रस्ताव के साथ-साथ कांग्रेस ने गांधी जी को इस आंदोलन का सर्वेसर्वा नियुक्त किया और देश के आम लोगों से आह्वान किया कि वे हिंदू-मुसलमान का भेद त्याग कर सिर्फ हिदुस्तानी के तौर पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए एक हो जाएं।
'भारत छोड़ो आंदोलन' में क़ुर्बानियाँ
भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के साथ ही पूरे देश में क्रांति की एक लहर दौड़ गयी। अगले कुछ महीनों में देश के लगभग हर भाग में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध आम लोगों ने जिस तरह लोहा लिया उससे 1857 के भारतीय जनता के पहले मुक्ति संग्राम की यादें ताजा हो गईं।
सरकारी दमन और हिंसा का ऐसा तांडव देश के लोगों ने झेला जिसके उदाहरण कम ही मिलते हैं। स्वयं सरकारी आँकड़ों के अनुसार, पुलिस और सेना द्वारा 700 से भी ज्यादा जगह गोलाबारी की गई, जिसमें 1100 से भी ज्यादा लोग शहीद हो गए।
अगस्त क्रांति
अंग्रेज सरकार के भयानक बर्बर और अमानवीय दमन के बावजूद देश के आम हिंदू-मुसलमानों और अन्य धर्म के लोगों ने हौसला नहीं खोया और सरकार को मुँहतोड़ जवाब दिया। यह आंदोलन 'अगस्त क्रांति' क्यों कहलाता है, इसका अंदाजा उन सरकारी आँकड़ों को जानकर लगाया जा सकता है जो जनता की इस आंदोलन में कार्यवाहियों का ब्योरा देते हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, 208 पुलिस थानों, 1275 सरकारी दफ़्तरों, 382 रेलवे स्टेशनों और 945 डाकघरों को जनता ने नष्ट कर दिया।अँग्रेज़ों को जिन्ना, सावरकर, आरएसएस का साथ
यह जानकर किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दमनकारी अँग्रेज सरकार का इस आंदोलन के दरम्यान जिन तत्वों और संगठनों ने प्यादों के तौर पर काम किया वे हिंदू और इस्लामी राष्ट्र के झंडे उठाए हुए थे।
जिन्ना की ग़द्दारी
मुसलिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेसी घोषणा की प्रतिक्रिया में अंग्रेज सरकार को आश्वासन देते हुए कहा,
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'कांग्रेस की असहयोग की धमकी दरअसल श्री गांधी और उनकी हिंदू कांग्रेस सरकार अंग्रेज सरकार को ब्लैकमेल करने की है। सरकार को इन गीदड़भभकियों में नहीं आना चाहिए।'
मुहम्मद अली जिन्ना, नेता, मुसलिम लीग
हिंदू महासभा ने अंग्रेज़ों की मदद की
लेकिन सबसे आपत्तिजनक भूमिका हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रही, जो भारत माता और हिंदू राष्ट्रवाद का बखान करते नहीं थकते थे। 'भारत छोड़ो आंदोलन' पर अंग्रेजी शासकों के दमन का कहर बरपा था और देशभक्त लोग सरकारी संस्थाओं को छोड़कर बाहर आ रहे थे, इनमें बड़ी संख्या उन नौजवान छात्र-छात्राओं की थी जो कांग्रेस के आह्वान पर सरकारी शिक्षा संस्थानों को त्याग कर यानी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर बाहर आ गये थे। लेकिन यह हिंदू महासभा ही थी, जिसने अंग्रेज सरकार के साथ खुले सहयोग की घोषणा की।
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हिंदू महासभा के मतानुसार, व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज सरकार के साथ संवेदनपूर्ण सहयोग की नीति है। जिसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेजों के साथ सहयोग जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है।'
विनायक दामोदर सावरकर, नेता, हिन्दू महासभा
हिन्दू महासभा-मुसलिम लीग की साझा सरकारें
कांग्रेस का 'भारत छोड़ो आंदोलन' दरअसल सरकार और मुसलिम लीग के बीच देश के बँटवारे के लिए चल रही बातचीत को भी चेतावनी देना था। इस उद्देश्य से कांग्रेस ने सरकार और मुसलिम लीग के साथ किसी भी तरह के सहयोग का बहिष्कार किया हुआ था। लेकिन इसी समय हिंदू महासभा ने लीग के साथ सरकारें चलाने का निर्णय लिया। 'वीर' सावरकर ने इस शर्मनाक रिश्ते के बारे में सफाई देते हुए 1942 में कहा,
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'व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि बुद्धिसम्मत समझौतों के जरिए आगे बढ़ना चाहिए। यहाँ सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुसलिम लीग के साथ मिलीजुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सबको पता है।'
विनायक दामोदर सावरकर, नेता, हिन्दू महासभा
आन्दोलन दबाने के उपाय बताए
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन' को दबाने के लिए अंग्रेज़ों को उपाए सुझाए। हिन्दू महासभा के नेता नंबर दो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो हद ही कर दी।मुखर्जी ने बंगाल में मुसलिम लीग के मंत्रिमंडल में गृह मंत्री और उप-मुख्यमंत्री होते हुये अनेक पत्रों में बंगाल के ज़ालिम अँगरेज़ गवर्नर को दमन के वे तरीक़े सुझाये जिनसे बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन को पूरे तौर पर दबाया जा सकता था।
संघ की आपत्तिजनक भूमिका
अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रवैया 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जानना हो तो एम. एस. गोलवलकर के इस वक्तव्य को पढ़ना काफी होगा: '1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। इस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया।'
गोलवलकर की भूमिका
इस तरह स्वयं गोलवलकर, जिन्हें 'गुरुजी' भी कहा जाता है, से हमें यह तो पता चल जाता है कि संघ ने आंदोलन के पक्ष में परोक्ष रूप से किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं की। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी भी प्रकाशन या दस्तावेज या स्वयं गुरुजी के किसी दस्तावेज से आज तक यह पता नहीं लग पाया है कि संघ ने अप्रत्यक्ष रूप से 'भारत छोड़ो आंदोलन' में किस तरह की हिस्सेदारी की थी।'गुरुजी' का यह कहना कि 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रोज़मर्रा का काम ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है। यह रोज़मर्रा का काम क्या था, इसे समझना जरा भी मुश्किल नहीं है।
क्या कहा था 'गुरुजी' ने?
गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत इस ब्यौरे से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है कि आरएसएस का मक़सद आम लोगों को निराश व निरुत्साहित करना था। ख़ासतौर से उन देशभक्त लोगों को जो अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ कुछ करने की इच्छा लेकर घर से आते थे।सच तो यह है कि गोलवलकर ने स्वयं भी कभी यह दावा नहीं किया कि आरएसएस अंगे्रज़ विरोधी था। अंग्रेज शासकों के चले जाने के बहुत बाद गोलवलकर ने 1960 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में अपने एक भाषण में कहाः
सरकार के ख़िलाफ़ नहीं
आरएसएस ऐसी गतिविधियों से बचता था, जो अंग्रेज़ी सरकार के खि़लाफ़ हों। संघ द्वारा छापी गयी हेडगेवार की जीवनी में भी इस सच्चाई को छुपाया नहीं जा सका है। स्वतंत्रता संग्राम में डाक्टर साहब की भूमिका का वर्णन करते हुए बताया गया हैः 'संघ-स्थापना के बाद डा. साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के संबंध में ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका नहीं के बराबर रहा करती थी।'अंग्रेजी राज के ख़िलाफ़ संघर्ष में जो भारतीय शहीद हुए उनके बारे में गुरुजी क्या राय रखते थे वह इस वक्तव्य से बहुत स्पष्ट है-
'हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे नहीं माना है, क्योंकि अंततः वह अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।'
शहीद!
शायद यही कारण है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक भी कार्यकर्ता अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए शहीद नहीं हुआ।शहीद होने की बात तो दूर रही, आरएसएस के उस समय के नेताओं गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक, लाल कृष्ण अडवाणी, के. आर. मलकानी या अन्य किसी आरएसएस सदस्य ने किसी भी तरह इस महान मुक्ति आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया।
(आरएसएस और सावरकर के तमाम उद्धरण उनके दस्तावेज़ों से लिए गए हैं।)
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