सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली नगर निगम की स्थायी समिति की 18वीं और अंतिम सीट के लिए पिछले सप्ताह चुनाव कराने में दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना की "जल्दबाज़ी" पर सवाल उठाया और अब भाजपा-नियंत्रित सदन में अध्यक्ष चुनने के लिए मतदान पर रोक लगा दी।
जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने मानदंडों के स्पष्ट उल्लंघन में उपराज्यपाल द्वारा चुनाव का आदेश देने के पीछे के कानूनी आधार पर भी सवाल उठाया। कोर्ट ने कहा- "नामांकन का मुद्दा भी है...जब मेयर (सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की शैली ओबेरॉय) अध्यक्षता करने के लिए खुद वहां मौजूद हैं। आपको (एलजी को) पावर कहां से मिली?" सुप्रीम कोर्ट ने कहा- "इस तरह हस्तक्षेप करने से लोकतंत्र का क्या होगा? क्या इसमें भी कोई राजनीति है?" सुप्रीम कोर्ट में अकेले उपराज्यपाल सक्सेना की ही शिकायत नहीं पहुंची हुई है। विपक्ष शासित राज्यों के राज्यपालों और उपराज्यपालों के रवैये की शिकायत सुप्रीम कोर्ट में हुई है। विपक्ष ने कहा कि राज्यपाल और एलजी ऐसे काम कर रहे हैं जैसे वे भाजपा के एजेंट हों।
आम आदमी पार्टी और भाजपा के बीच पिछले सप्ताह पूरे समय काफी ड्रामा चला। क्योंकि स्टैंडिंग कमेटी में 18वीं सीट के लिए चुनाव को लेकर भाजपा और आप आमने-सामने थे। आप के बहिष्कार और कांग्रेस के अनुपस्थित रहने के बाद भाजपा की जीत हुई थी। लेकिन आप ने आरोप लगाया था कि भाजपा ने पूरी तरह धांधली की।
भाजपा की इस विवादित जीत का नतीजा यह निकला कि भाजपा ने स्थायी समिति को नियंत्रित कर लिया। क्योंकि स्टैंडिंग कमेटी ही दिल्ली नगर निगम के पीछे असली पावर है और वही एमसीडी के सारे फैसले लेती है। इसके 18 में से 10 सदस्य अध्यक्ष का चयन कर सकते हैं। मामला 18वीं सीट को लेकर फंसा था। भाजपा हर हालत में इस पोस्ट पर अपना आदमी चाहती थी।
इससे पहले मेयर शैली ओबेरॉय ने एमसीडी आयुक्त, अश्विनी कुमार को पत्र लिखकर उपराज्यपाल के चुनाव आह्वान को "अवैध" बताया था, लेकिन सक्सेना ने इसे खारिज कर दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और फैसले ने जनता को उपराज्यपाल की असलियत और हैसियत दोनों बता दी है।
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