देश की राजधानी जल रही है। नागरिकता संशोधन क़ानून के समर्थकों और विरोधियों के बीच हुई हिंसा में अब तक 5 लोगों की जान जा चुकी है और 50 से ज़्यादा लोग घायल हैं। यह सब ऐसे वक़्त में हो रहा है जब दुनिया के ताक़तवर देश अमेरिका के राष्ट्रपति भारत के दौरे पर हैं। दिल्ली की स्थिति को लेकर लोग बेहद चिंतित हैं और सरकारों को, प्रशासन को जी-भरकर कोस रहे हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी लोगों के निशाने पर हैं।
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क्यों मौन साधे हैं केजरीवाल?
लोगों ने केजरीवाल से पूछा है कि अब वह मुख्यमंत्री हैं तो वह सड़कों पर क्यों नहीं निकलते, शांति की अपील क्यों नहीं करते। दिल्ली में पिछले दो महीने में जामिया से लेकर जेएनयू में तक जबरदस्त हिंसा हो चुकी है। जेएनयू में नक़ाबपोश गुंडे तो जामिया में पुलिस घुसकर छात्रों के साथ मारपीट कर चुकी है। लेकिन मजाल हो कि केजरीवाल कहीं गये हों। आपने उन्हें पिछले दो महीने में छात्रों के बीच या नागरिकता क़ानून का शांतिपूर्ण विरोध कर रहे लोगों के बीच देखा हो। दिल्ली में 5 लोगों की मौत होने के बाद और लोगों के लगातार सवाल पूछने के बाद केजरीवाल ने विधायकों और अधिकारियों की बैठक बुलाई है और अपने मंत्री गोपाल राय को उपराज्यपाल अनिल बैजल से मिलने भेजा है।
यह सही है कि दिल्ली की क़ानून व्यवस्था यहां के मुख्यमंत्री के हाथ में नहीं है। लेकिन क्या यह भी मुख्यमंत्री के हाथ में नहीं है कि वह सड़कों पर उतरकर लोगों से शांति की अपील करें, लोगों को समझाएं। अगर नहीं कर सकते तो फिर लोगों ने उन्हें अपना सियासी रहनुमा क्यों चुना?
आम आदमी पार्टी के उभार के दौरान केजरीवाल हर घटना के लिये शीला दीक्षित पर निशाना साधते रहते थे। लेकिन मुख्यमंत्री बनते ही उनके बोल वही शीला दीक्षित वाले हो गये कि मेरे पास क़ानून व्यवस्था नहीं है। ऐसे में यह माना जाना चाहिए कि केजरीवाल उस समय जनता की परेशानी को दूर करने के लिये चिंतित नहीं थे, वह सिर्फ़ राजनीति कर रहे थे।
दिल्ली के लोगों ने विधानसभा चुनाव में प्रचार के दौरान हुई नफ़रत की राजनीति के ख़िलाफ़ वोट दिया है। दिल्ली के लोगों ने ऐसे लोगों को हराया है जिन्होंने पूरे चुनाव को हिंदू-मुसलिम ध्रुवीकरण तक सीमित कर दिया था। क्या केजरीवाल को संकट के वक़्त ऐसे लोगों के साथ खड़ा नहीं होना चाहिये?
सत्ता हासिल करने तक सीमित?
क्या केजरीवाल को दिल्ली में प्रंचड बहुमत देने वाले लोगों के बीच में खड़े होकर यह नहीं बताना चाहिए कि वह दूसरों से ‘अलग’ राजनीति करते हैं, जिसका दावा वह जोर-शोर से करते थे और करते हैं। लेकिन यहां तो हालात बिलकुल उलट हो गये हैं। केजरीवाल शाहीन बाग़ का नाम लेने से डरते हैं, जेएनयू और जामिया के छात्रों पर लाठीचार्ज पर आंखें और कान बंद कर लेते हैं। क्या वह सिर्फ़ सत्ता हासिल करने और किसी भी तरह उसे बरक़रार रखने तक सीमित रह गये हैं।‘अलग’ राजनीति के दावे का क्या हुआ?
केजरीवाल जी, विकास तभी हो सकता है जब सांप्रदायिक सौहार्द्र बना रहे। शांति के दुश्मनों, चाहे वह जिस क़ौम के हों, उनके ख़िलाफ़ तो आप सड़कों पर उतर ही सकते हैं। ऐसे वक़्त में आप अधिकारियों की बैठक बुलाने के बजाय लोगों के बीच में जाइये, अपने विधायकों, मंत्रियों के साथ जाइये जिससे लोगों को इस बात का भरोसा रहे कि उन्होंने ऐसे शख़्स को देश की राजधानी का मुख्यमंत्री बनाया है जो पुराने मुख्यमंत्रियों की तरह दिल्ली की क़ानून व्यवस्था केंद्र के हाथ में होने का रोना न रोये बल्कि सड़क पर उतरकर यह संदेश दे कि वास्तव में ‘अलग’ राजनीति करने का उसका दावा सच है।
करंट लगाने की मानसिकता छोड़िए
अमित शाह जी, आपसे भी दिल्ली और दुनिया भर में बैठे भारतीय बहुत कुछ कह रहे हैं। आप समय निकालकर उन्हें पढ़िये, शायद आपको राजनीतिक रूप से निष्पक्ष लोगों की टिप्पणियों को पढ़ना चाहिये। उनका कहना सिर्फ़ इतना ही है कि आपके गृह मंत्री बनने के 6-8 महीने के भीतर ही दिल्ली कई बार जल चुकी है। दिल्ली के चुनाव में लोग बीजेपी की राजनीति को नकार चुके हैं।
अमित शाह जी, राजधानी की क़ानून व्यवस्था आपके हाथ में है। लोग आपसे कह रहे हैं कि आप देश के गृह मंत्री हैं और आपको शाहीन बाग़ में बैठे लोगों को करंट लगाने की मानसिकता से बाहर निकलने की ज़रूरत है।
दिल्ली की हिंसा में जिन लोगों के घरों में मौतें हुई हैं, उनके परिवारों की चीखें कई सालों तक लोगों को डराएंगी, सवाल पूछेंगी कि उनके प्रियजनों का क्या कसूर था। दिल्ली पुलिस के हेड कांस्टेबल रतन लाल हों या दिल्ली के ही फुरकान, दोनों के घरों में मातम पसरा हुआ है। छोटे बच्चे बिलख रहे हैं। ऐसे में अमित शाह और केजरीवाल, दोनों को ही सड़कों पर निकलकर दंगाइयों को साफ़ संदेश देना चाहिए कि वे संभल जाएं वरना उनका बेहतर इलाज किया जाएगा। दिल्ली की हिंसा ने दुनिया भर में भारत की जो छवि बना दी है, उसे ठीक करने में न जाने कितना लंबा वक़्त लगेगा, कोई नहीं जानता।
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