दिल्ली में नागरिकता क़ानून को लेकर जबरदस्त हिंसा हो चुकी है। 18 लोगों की जान जा चुकी है और 250 से ज़्यादा लोग घायल हैं और यह आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। देश की राजधानी के एक बड़े हिस्से में आग लगी हुई है। सोशल मीडिया इस हिंसा के वीडियो और फ़ोटो से पट चुका है। घरों-दुकानों से लेकर ऑफ़िसों में बैठे लोग इस हिंसा को लेकर बस एक ही सवाल पूछ रहे हैं कि आख़िर इतने लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन है? उनके पूछने का सीधा मतलब यही है कि क़ानून व्यवस्था क्या इतनी कमजोर हो गयी है कि देश की राजधानी में दंगाई हत्याएं करें, गाड़ियां-दुकानें जलायें और पुलिस कुछ नहीं कर सके। वे जानना चाहते हैं कि आख़िरकार पुलिस दंगाइयों पर क़ाबू क्यों नहीं पा सकी।
कपिल मिश्रा को क्यों नहीं किया गिरफ़्तार?
दिल्ली की क़ानून व्यवस्था केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है। यानी अमित शाह के आदेश पर ही दिल्ली पुलिस काम करती है। नागरिकता क़ानून के विरोध में जब शनिवार रात को महिलाएं जाफ़राबाद इलाक़े में सड़क पर धरना दे रही थीं तो उसके बाद अगले दिन कपिल मिश्रा ने धमकी दी थी कि पुलिस सड़क को खाली करा ले, वरना वे लोग सड़कों पर उतरेंगे। लेकिन न जाने पुलिस ने कपिल मिश्रा को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया। न जाने पुलिस ने कपिल मिश्रा को रविवार को अपने सैकड़ों साथियों के साथ महिलाओं के प्रदर्शन स्थल से कुछ दूरी पर क्यों इकट्ठा होने दिया। इसके बाद रविवार को ही हालात बिगड़े और मौजपुर इलाक़े में इस क़ानून के समर्थकों और विरोधियों में पथराव हो गया।
दिल्ली पुलिस को इसके बाद भी चेत जाना चाहिए था। लेकिन न जाने वह क्यों चुप थी। सोमवार को ज़बरदस्त हिंसा भड़की और यह मंगलवार को भी जारी रही। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि आख़िर अमित शाह क्या कर रहे थे? दिल्ली के हालात बिगड़ते जा रहे थे और वह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के स्वागत में अहमदाबाद में थे। अगर वह स्थिति को सख़्ती से हैंडल करते तो क्या इतने लोगों की जान जाती? क़तई नहीं।
राजनीतिक दबाव में थी पुलिस?
यहां पर दो सवाल खड़े होते हैं। या तो दिल्ली पुलिस पूरी तरह अक्षम है और वह उपद्रवियों को क़ाबू नहीं कर सकती या फिर दिल्ली पुलिस के हाथ बंधे हुए थे। दिल्ली पुलिस के अक्षम होने का तर्क गले के नीचे नहीं उतरता क्योंकि राजधानी की पुलिस में भारत के सबसे कुशल और तेज-तर्रार पुलिस अफ़सर हैं। ऐसे में क्या पुलिस पर कोई राजनीतिक दबाव था? क्योंकि प्रथम दृष्टया यही कारण समझ में आता है कि अगर कपिल मिश्रा वहां जाकर बयानबाज़ी नहीं करते तो शायद ऐसे हालात नहीं बनते।
ख़ुफिया एजेंसियों की भूमिका पर सवाल
इसके अलावा सोशल मीडिया में कई ऐसे वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिनमें उन्मादी नारे लगाते हुए लोग दिखाई दे रहे हैं। यहां पर सवाल यह भी है क्या ख़ुफिया एजेंसियां पूरी तरह फ़ेल हो गई हैं? क्या उन्हें इस बात की भनक नहीं लगी कि इतने बड़े पैमाने पर दंगाई देश की राजधानी को दहलाने के लिये तैयार बैठे हैं? और यह सब ऐसे समय में हुआ जब दुनिया के ताक़तवर देशों में से एक अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप भारत के दौरे पर आये हुए थे। इसका मतलब ख़ुफिया एजेंसियां अपने काम में पूरी तरह फ़ेल रहीं और अगर उन्होंने कोई इनपुट दिया था तो एक्शन क्यों नहीं हुआ?
नागरिकता क़ानून के अस्तित्व में आने के बाद से ही दिल्ली का माहौल लगातार तनावपूर्ण बना हुआ है। ऐसे में तो ख़ुफिया एजेंसियों को पहले ही अलर्ट पर रहना चाहिये था। लेकिन एजेंसियां इतनी अक्षम साबित क्यों हुईं, लोग इस सवाल का जवाब मांग रहे हैं।
दिल्ली पुलिस न जाने इतनी अक्षम एजेंसी की तरह व्यवहार क्यों कर रही है। जवाहर लाल यूनिर्वर्सिटी में नक़ाबपोश गुंडों के घुसने के इतने दिनों बाद तक पुलिस एक हमलावर को गिरफ़्तार नहीं कर पाई है। पुलिस की नाक के नीचे गुंडे घंटों तक जेएनयू में उत्पात मचाते रहे और नारेबाज़ी करते हुए निकल गये लेकिन पुलिस कहां थी, क्या कर रही थी, कोई नहीं जानता।
जेएनयू मामले में पुलिस इस क़दर मजबूर है कि वह स्टिंग ऑपरेशन में हमले का क़बूलनामा देने वालों को पूछताछ के लिये तक नहीं बुला सकी है। आख़िर ऐसा कौन सा दबाव है पुलिस पर? स्टिंग ऑपरेशन में पकड़े गये दो छात्र और एक छात्रा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े हैं।
तो क्या अमित शाह के अलावा दिल्ली पुलिस के कमिश्नर अमूल्य पटनायक से जवाब नहीं मांगा जाना चाहिए? क्या उनकी जवाबदेही तय नहीं की जानी चाहिए?
दिल्ली पुलिस ने मंगलवार रात को जाफ़राबाद का इलाक़ा खाली करा लिया, क्या पुलिस यह काम पहले नहीं कर सकती थी? लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। तो क्या यह समझा जाए कि उसने हिंसा होने दी? इसमें सत्ता के नापाक इरादों की बू आती है।
शाहीन बाग़ को बनाया राजनीतिक हथियार
दिल्ली चुनाव में प्रचार के दौरान अमित शाह लगातार इस बात को कहते रहे कि ईवीएम का बटन इतनी जोर से दबायें कि करंट शाहीन बाग़ में लगे। शाह के बयान और बीजेपी के अन्य नेताओं के बयानों का सीधा मतलब था कि शाहीन बाग़ में बैठे लोग देशद्रोही हैं, ऐसे में पुलिस उन्हें हटाती क्यों नहीं? इसका एक ही कारण समझ आता है कि बीजेपी इस मुद्दे पर चुनाव में वोट बटोरना चाहती थी लेकिन उसकी यह कोशिश पूरी तरह विफल रही।
बॉस के ख़िलाफ पुलिसकर्मियों का धरना
यहां इस बात का जिक्र करना ज़रूरी होगा कि कुछ महीने पहले ही दिल्ली में पुलिस आयुक्त के ख़िलाफ़ पुलिसकर्मी धरने पर बैठे। शायद ऐसा आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ जब पुलिसकर्मियों ने अपने ही मुखिया के ख़िलाफ़ खुलेआम मोर्चा खोला। यह हैरान करने वाला इसलिये था क्योंकि पुलिस को बेहद ही अनुशासित फ़ोर्स माना जाता है।
पुलिसकर्मियों के कमिश्नर के ख़िलाफ़ धरने पर बैठने के बाद भी पटनायक को उनके पद से नहीं हटाया गया और कार्यकाल ख़त्म होने के बाद एक महीने का एक्सटेंशन दे दिया गया। लेकिन क्यों? क्या इसके पीछे कोई राजनीतिक कारण है?
यूपीए सरकार में हुए कई इस्तीफ़े
बीजेपी के नेताओं को यहां याद दिलाना ज़रूरी होगा कि जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार सत्ता में थी तो बीजेपी के नेताओं के आरोपों के चलते ही सरकार ने कई मंत्रियों के इस्तीफ़े ले लिये थे। आईपीएल घोटाले में शशि थरूर, कॉमनवेल्थ घोटाले में सुरेश कलमाडी, कोयला ब्लॉक मामले में अश्विनी कुमार, रेलवे रिश्वत मामले में पवन बंसल, 2जी घोटाले में ए. राजा और मुंबई में हुए 26/11 के हमले में शिवराज पाटिल, आर.आर.पाटिल और विलासराव देशमुख से इस्तीफ़ा लिया गया था। शिवराज पाटिल देश के गृह मंत्री थे, जबकि आर.आर.पाटिल महाराष्ट्र के गृह मंत्री थे और विलासराव देशमुख महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे।
लेकिन अब जब हिंसा में देश की राजधानी में 18 लोगों की मौत हो चुकी है तो क्या अमित शाह को अपने पद से इस्तीफ़ा नहीं देना चाहिये? दिल्ली और देश की हुई बदनामी की ज़िम्मेदारी कौन लेगा। कौन 18 लोगों की मौत की ज़िम्मेदारी लेगा? क्या अमित शाह ज़िम्मेदारी लेंगे, क्या वह अपने पद से इस्तीफ़ा देंगे? और अगर वह इस्तीफ़ा नहीं देते हैं तो इसका सीधा मतलब यही है कि वह अपनी जवाबदेही से, ज़िम्मेदारी से मुकर रहे हैं।
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