पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 जैसे-जैसे नज़दीक आता जा रहा है, बंगाली अस्मिता के सबसे बड़े प्रतीकों में एक नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपनाने की बीजेपी की कोशिशें तेज़ होती जा रही हैं। उग्र हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली पार्टी की यह कोशिश इस सच्चाई के बावजूद जारी है कि नेताजी के सिद्धान्त और मूल्य न तो बीजेपी के एकात्म मानवतावाद से मेल खाते हैं न ही मुसलिम-विरोध पर टिकी उसकी नीतियों से। कड़वी सच्चाई तो यह है कि जिस समय नेताजी अंग्रेजों से लोहा लेने की तैयारी कर रहे थे, आरएसएस के प्रेरणा पुरुष सावरकर अंग्रेजों की मदद करने के लिए हिन्दुओं की पलटन तैयार करने में लगे हुए थे।
बीजेपी के पास आइकॉन नहीं
लेकिन बीजेपी के पास बंगाल में आम जनता में स्वीकार करने लायक अपना कोई आईकॉन नहीं है, लिहाज़ा वह दूसरी पार्टियों के महापुरुषों को अपनाने की कोशिश में है, भले ही उनमें कहीं कोई साम्य हो या न हो।
नरेंद्र मोदी सरकार ने इस साल 23 जनवरी को नेताजी की 125वीं जयंति के मौके पर एक विशेष कार्यक्रम शुरू करने की तैयारी की है, जो साल भर चलेगा और अगले साल नेताजी जयंति पर पूरा होगा। इसके लिए गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई गई है।
नेताजी की अपनाने की जुगत
इसकी शुरुआत 23 जनवरी को कोलकाता में एक विशेष कार्यक्रम से होगी, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संबोधित करेंगे।
दरअसल नेताजी को अपनाने की कोशिशें तो पिछले लोकसभा चुनाव के पहले ही शुरू हो गई थीं जब केंद्र सरकार ने नेताजी से जुड़े काग़ज़ात सार्वजनिक किए थे।
'नेताजी पेपर्स' नामक काग़ज़ात को सार्वजनिक करने के पीछे मोदी सरकार की मंशा यह थी कि उसमें ऐसी कोई सामग्री ज़रूर होगी जो जवाहरलाल नेहरू को सुभाष चंद्र बोस के विरोधी के रूप में पेश करती होगी या जिससे नेहरू की छवि खराब होती होगी।
लेकिन सरकार के हाथ निराशा लगी और ऐसा कोई दस्तावेज सामने नहीं आया।
इस बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने 24 अगस्त, 2019 को 'हिन्दुस्तान टाइम्स' में छपे लेख 'द नेताजी हिन्दुत्व वॉन्ट्स यू टू फॉरगेट' में क्या कहा था। गुहा ने विस्तार से बताया कि किस तरह नेहरू को नेताजी का प्रतिद्वंदी या विरोधी बताना पूरी तरह ग़लत और बेबुनियाद है।
रामचंद्र गुहा की नज़र में बीजेपी-नेताजी
उन्होंने लिखा है कि कई मुद्दों पर मतभेद के बावजूद अलग-अलग समुदाय के लोगों के बीच सामंजस्य, स्त्री-पुरुष समानता और महात्मा गांधी के प्रति सम्मान ज़्यादातर मामलों में उनके मत एक थे। नेताजी ने आज़ाद हिन्द फ़ौज के ब्रिगेडों के नाम गांधी, मौलाना आज़ाद और नेहरू के नाम पर रखे थे।
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नेहरू ने लाल क़िला से दिए पहले भाषण की शुरूआत गांधी जी से की थी, लेकिन इसमें नेताजी का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया था। उन्होंने कहा था, "सबका नाम लेना मुमकिन नहीं है, पर मैं सुभाष चंद्र बोस का नाम लिए बग़ैर नहीं रह सकता, जिन्होंने देश छोड़ दिया, आज़ाद हिन्द फ़ौज का गठन किया और देश की स्वतंत्रता के लिए बहादुरी से लड़े।"
इसके आगे नेहरू ने कहा,
“
"नेताजी ने विदेशी धरती पर भारत का झंडा फहराया, लेकिन जब लाल क़िले पर झंडा फहराने का समय आया, वे यह सपना पूरा होते देखने के लिए नहीं रहे। यह उनकी वापसी का दिन होना चाहिए था, पर अफ़सोस कि वे इस दुनिया में नहीं हैं।"
जवाहर लाल नेहरू, प्रथम प्रधानमंत्री
नेताजी करते थे गांधी का सम्मान
रामचंद्र गुहा के अनुसार, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मन में महात्मा गांधी के प्रति गहरा सम्मान था। एम. गांधी नाथन की किताब 'नेताजी सुभाष चंद्र बोस : अ मलेशियन पर्सपेक्टिव' में नेताजी ने कहा था, "मैंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश के कोने-कोने में राष्ट्रवाद की लहर देखी।"
महात्मा गांधी के बारे में बीजेपी, संघ परिवार और उसके लोगों के क्या विचार हैं, इसे तो बीजेपी सांसद साध्वी प्रज्ञा, कर्नाटक बीजेपी के नेता अनंत हेगड़े और दूसरे लोगों के भाषणों, बयानों और ट्वीटों से समझा जा सकता है।
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नेताजी का परिवार और नेहरू
इसी तरह बीजेपी यह प्रचारित करती रही है कि आज़ादी के बाद भारत की सरकार ने नेताजी की विधवा, बेटी की कभी कोई परवाह नहीं की। लेकिन रामचंद्र गुहा ने नेताजी से जुड़े गोपनीय काग़ज़ात के हवाले से कहा कि नेहरू सरकार नेताजी की विधवा एमिली शेंकल और उनकी बेटी अनिता बोस को हर महीने पैसे भिजवाती थी और उनसे लगातार संपर्क में थी।
वे 1961 में नेताजी की 18 साल की बेटी एमिल शेंकल के भारत आगमन पर लिखते हैं,
“
"1961 में भारतीय-जर्मन माता-पिता की बेटी जब भारत आईं, तो यह उनका निजी दौरा होने के बावजूद उन्हें हर जगह वीवीआपी ट्रीटमेंट मिला। वे राज्यपालों के यहाँ विशेष अतिथि होती थीं, उनके लिए रिसेप्शन का आयोजन किया जाता था।"
रामचंद्र गुहा, इतिहासकार
नेताजी का मुसलमानों से रिश्ता
रामचंद्र गुहा के मुताबिक़, नेताजी को आज़ादी की लड़ाई में आर्थिक मदद देने वालों में ज़्यादातर मुसलमान थे। उनमें एक ईरान में गलीचों के व्यापारी आमिर मुहम्मद ख़ान थे। आमिर मुहम्मद ने अपने बेटे वज़ीर ख़ान को भारत-म्यांमार युद्ध में लड़ने भेजा था।
बीजेपी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, जिनकी पुण्यभूमि भारत में नहीं हो उन्हें सच्चा भारतीय नहीं मानने जैसे विचार नेताजी सुभाष के विचारों से कहीं मेल नहीं खाते हैं। इसी तरह नेताजी की आज़ाद हिंद फ़ौज में धार्मिक स्तर पर किसी तरह का भेदभाव नहीं था। शहनवाज़ ख़ान इसके सबूत हैं।
अंग्रेजों की मदद की थी सावरकर ने
इसी तरह यह भी सच है कि जिस समय सुभाष बाबू अंग्रेजों को चुनौती देने के लिए देश से बाहर जाने की योजना पर काम कर रहे थे, हिन्दू महासभा के विनायक दामोदर सावरकर ने कहा था कि हिन्दुओं को अंग्रेजों की मदद करनी चाहिए और इसके लिए उन्हें उनकी सेना में शामिल होना चाहिए। इतना ही नहीं, स्वयं सावरकर ने इस मुहिम की अगुआई की थी और कैंप लगवा कर हज़ारों हिन्दुओं को अंग्रेजी फ़ौज में शामिल करवाया था।
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जिस समय आज़ाद हिंद फ़ौज पूर्वोत्तर में घुस कर अंग्रेजों को हराते हुए मणिपुर तक पहुँच गई थी, अंग्रेजों ने हिन्दुओं की इसी टुकड़ी को आगे कर आज़ाद हिन्द फ़ौज को रोका था और नेताजी के सपने को चकनाचूर कर दिया था।
नेताजी बनाम हिन्दू राष्ट्रवाद
नेताजी का राष्ट्रवाद किसी रूप से उग्र नहीं था, वह किसी ख़ास समुदाय के लिए नहीं था, उसमें किसी समुदाय के लिए भेदभाव या विद्वेष की भावना नहीं थी। नेताजी के राष्ट्रवाद की यह कह कर आलोचना की जा सकती है कि वह नात्सीवाद और फ़ासीवाद के ख़तरों को नज़रअंदाज करता है, अधिनायकवाद की परवाह नहीं करता है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि वह उग्र हिन्दुओं का राष्ट्र होता या उसमें अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा सकता था।
सवाल यह है कि क्या यही बातें बीजेपी के राष्ट्रवाद के बारे में कही जा सकती है?
बीजेपी का राष्ट्रवाद किसी समुदाय की श्रेष्ठता और किसी दूसरे समुदाय को कमतर कर देखने पर आधारित है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का राष्ट्रवाद ऐसा नहीं था।
राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ थे टैगोर
इसी तरह बीजेपी रविंद्रनाथ टैगोर के साथ भी कर रही है। टैगोर राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ थे क्योंकि उनका मानना था कि अपने राष्ट्र को महान और दूसरों से बेहतर मानना ही इसके मूल में है और यह पूरी मानवता के लिए ख़तरनाक स्थिति है, क्योंकि इससे राष्ट्रों में युद्ध होते हैं और पहला और दूसरा विश्वयुद्ध इसी वजह से लड़े गए थे।
लेकिन मोदी ने बीते दिनों विश्व-भारती में एक कार्यक्रम में टैगोर को राष्ट्रवादी क़रार दिया और उसे अपनी पार्टी के राष्ट्रवाद से जोड़ दिया। यह कविगुरु के प्रति अन्याय है।
अब वही बीजेपी नेताजी को अपनाने की कोशिश कर रही है और जिस तरह कांग्रेस के सरदार बल्लभ भाई पटेल को अपना लिया, उसी तरह सुभाष चंद्र बोस और रविंद्रनाथ टैगोर को अपनाने की जुगाड़ में है।
नेताजी के नाम पर राजनीति
इस कोशिश के तहत ही नेताजी के भाई के पोते चंद्र बोस को पार्टी में शामिल किया गया, हालांकि उनका मोहभंग हो चुका है और उन्होंने पार्टी की आलोचना कई बार की है।
सुभाष बाबू के नाम पर राजनीति तृणमूल भी कर रही है। पश्चिम बंगाल सरकार ने उनकी 125वीं जयंति मनाने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया है। नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और अभिजित बनर्जी इसके प्रमुख हैं। इसमें बांग्ला कवि शंख घोष और नेताजी से रिश्तेदार सुगत बोस भी हैं।
टैगोर और नेताजी बंगाली अस्मिता के प्रतीक हैं, बीजेपी की कोशिश है कि वह उन्हें अपना कर खुद पर बाहरी होने के आरोप को धो डाले और बंगालियों के नज़दीक चली जाए, जिससे उसे चुनाव में फ़ायदा हो। वह इसमें कितनी कामयाब होगी, यह तो पता नहीं, पर यह साफ है कि बीजेपी बड़ी चालाकी से इस दिशा में काम कर रही है और अपनी रणनीति को आगे बढ़ा रही है।
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