पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 जैसे-जैसे नज़दीक आता जा रहा है, राज्य के दलित मातुआ समुदाय को रिझाने की कोशिशें तेज़ होती जा रही हैं। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और सत्ता हासिल करने की उम्मीद पाल रही भारतीय जनता पार्टी, दोनों में इस समुदाय को अपनी ओर लाने की होड़ लगी हुई है।
इसे इससे समझा जा सकता है कि बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह पिछले कई बार से पश्चिम बंगाल जाने पर किसी न किसी मातुआ परिवार में जाकर खाना ज़रूर खाते हैं और उसकी तसवीर ट्वीट करना नहीं भूलते।
मोदी ने लिया आशीर्वाद
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल आम चुनाव के पहले नदिया ज़िले के ठाकुरनगर जाकर 101 वर्षीय वीणापाणि देवी का चरणस्पर्श किया था और उनसे आशर्वाद लिया था। इस साल मार्च में वीणापाणि देवी का निधन हो गया। वे उस मातुआ समुदाय की शीर्ष व्यक्ति थीं। अब इस समुदाय का नेतृत्व उनके भतीजे और बहू में बँटा हुआ है। दोनों अलग-अलग पार्टियों में हैं।
कौन हैं मातुआ?
मौजूदा बांग्लादेश के गोपालपुर ज़िले में 1860 में हीराचाँद ठाकुर ने एक सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन शुरू किया था। उनके भक्तों को ही मातुआ कहा जाता है। बांग्ला भाषा में मातुआ नशे में धुत्त को कहते हैं, यानी, धर्म के नशे में धुत्त।
हीराचाँद ठाकुर के भक्तों का दावा था कि उन्हें बचपन में ही आत्मदर्शन हो गया था और उन्होंने अपने शिष्यों को 12 निर्देश दिए थे।
इस आन्दोलन में शामिल लोगों में सबसे ज़्यादा नामशूद्र थे, जो उस समय की सामाजिक संरचना में अछूत थे, लेकिन खेती-बाड़ी का पूरा कामकाज मोटे तौर पर इसी समुदाय के हाथ में था।
बंटवारे के समय मुसलिम लीग ने अपने बड़े हिन्दू नेता जोगेंद्र नाथ मंडल को तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान भेजा। मंडल भारत की सीमा से सटे इलाक़ों के हिन्दू दलितों, जिनमें मातुआ बहुसंख्यक थे, को यह समझाने में कामयाब रहे कि पाकिस्तान में उनके हित सुरक्षित हैं।
पश्चिम बंगाल में मातुआ
बांग्लादेश बँटवारे के ठीक पहले और उसके बाद लंबे समय तक मातुआ सीमा पार कर पश्चिम बंगाल आते रहे। शुरू में इसका कारण सांप्रदायिक उन्माद था। बाद में आर्थिक विवशता और बेहतर भविष्य की तलाश उनके भारत पलायन का कारण बने। बांग्लादेश से आने वाले ये मातुआ नामशूद्र नदिया, उत्तर चौबीस परगना, दक्षिण परगना में बहुसंख्यक हैं।
45 विधानसभा सीटों पर दबदबा
मातुआ लगभग 45 विधानसभा सीटों को राजनीतिक रूप से प्रभावित करने की स्थिति में हैं। सीपीआईएम नेतृत्व वाली वाम मोर्च सरकार ने राजनीतिक कारणों से बांग्लादेश से आने वाले इन लोगों को तरजीह दी, उन्हें ज़मीन का पट्टा, राशन कार्ड, नागरिकता वगैरह आसानी से मिलते गए। मोटे तौर पर ये सभी भारत के नागरिक बन चुके हैं। इसके बदले ये तीन ज़िले सीपीआईएम का गढ़ बन गए।
बीजेपी की रणनीति इस इलाक़े में समान नागरिकता क़ानून को भावनात्मक मुद्दा बनाना है। यह मातुआ समुदाय को सीधे अपील इस आधार पर करता है कि कोई तो है जो उन्हें सीधे बांग्लादेश से भारत की नागरिकता देने को तैयार है।
नागरिकता का मुद्दा
हालांकि बीते कुछ सालों से बांग्लादेश की आर्थिक स्थिति में ज़बरदस्त सुधार होने की वजह से भारत को होने वाला पलायन लगभग रुक चुका है। जो लोग उसके पहले आए थे, उन्हें नागरिकता मिल चुकी है। लेकिन बचे-खुचे लोगों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी, यह तर्क बीजेपी को मातुआ समुदाय में बढ़त देता है।
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यही वजह है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पहले 4 दिसंबर को सभी ज़िला मुख्यालयों से बड़े मातुआ नेताओं से ऑनलाइन बैठक की, उनकी समस्याएं और उनकी मांगें सुनीं। उन्होंने 9 दिसंबर को नदिया के ठाकुरनगर में एक बैठक रखी। लेकिन सवाल यह है कि खुद मातुआ क्या सोचते हैं।
बँटा हुआ मातुआ समुदाय
सच तो यह है कि मातुआ समुदाय राजनीतिक रूप से बँटा हुआ है, अकेले बीजेपी या टीएमसी उनका नेतृत्व करने का दावा नहीं कर सकती। वीणापाणि देवी के परिवार की ममता बाला ठाकुर तृणमूल सांसद थीं, जबकि परिवार के ही सुब्रत ठाकुर व शांतनु ठाकुर बीजेपी में हैं। शांतनु ठाकुर ने 2019 का लोकसभा चुनाव बीजेपी के टिकट पर लड़ा और ममता ठाकुर को हरा दिया।
बीजेपी की कोशिशों का यह नतीजा निकला कि अखिल भारतीय मातुआ महासंघ बेजीपी के नज़दीक आ गया। इसके प्रवक्ता अरबिंद विश्वास ने कुछ दिन पहले पत्रकारों से कहा था, "मातुआ हित में जो काम करेगा, वही देश में राज करेगा।"
“
"जब तक बांग्लादेश में हिन्दू हैं, उनका पलायन होता रहेगा और इसलिए सीएए ज़रूरी है।"
अरबिंद विश्वास, प्रवक्ता, अखिल भारतीय मातुआ महासंघ
एनआरसी
लेकिन मातुआ समुदाय को जो तबका टीएमसी के नज़दीक है, उसका तर्क है कि नैशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिजन्स यानी एनआरसी से सबसे ज़्यादा नुक़सान मातुआ समुदाय को ही है। वे ज़ोर देकर कहते हैं कि असम में एनआरसी में छूटे 40 लाख लोगों में अधिकतर मातुआ हैं।
लेकिन सच यह है कि बांग्लादेश से सटे इलाक़े में बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ा है। इसे इससे समझा जा सकता है कि साल 2009 के लोकसभा चुनाव में बनगाँव सोकसभा सीट पर बीजेपी को 3.95 प्रतिशत वोट हासिल हुए, पर 2014 में यह बढ़ कर 19 प्रतिशत हो गया। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के शांतनु ठाकर ने टीएमसी की ममता ठाकुर को हरा दिया। उन्हें 6,87,622 वोट मिले जबकि ममता ठाकुर को 5,76,028 वोट मिले।
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यदि 2019 के लोकसभा चुनाव को आधार मानें तो कहा जा सकता है कि मातुआ समुदाय पर बीजेपी की पकड़ मजबूत हुई है। इसका कारण यह भी है कि बनगाँव के विधानसभा इलाक़ों हरिणघाटा, कल्याणी, गायघाटा और स्वरूप नगर में बीजेपी को काफी बढ़त मिली थी। बागदा, बनगाँव उत्तर और बनगाँव दक्षिण में तृणमूल कांगेस को ज़्यादा वोट मिले थे। यह भी ग़ौर करने लायक बात है कि सभी सात विधानसभा क्षेत्र सुरक्षित हैं।
हालांकि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में वोटिंग पैटर्न अलग-अलग होते हैं, पर जिस तरह बीजेपी की पकड़ पहले से ही है और अब उसका प्रचार भी बढ़ता जा रहा है, तृणमूल कांग्रेस के लिए चिंता की बात है। सत्तारूढ़ दल को यह देखना होगा कि वे मातुआ समुदाय को कैसे अपने से जोड़ते हैं और बीजेपी की ओर उनके बढने के रुझान को कैसे रोकते हैं।
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