पश्चिम बंगाल के चुनाव के एलान से पहले हैदराबाद के सांसद असदउद्दीन ओवैसी से उनकी चुनावी रणनीति के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी का शेर पढ़ा था - “मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए कारवां बनता गया।” लेकिन हुआ इसका उल्टा और चुनाव का एलान होते-होते ओवैसी कारवां तो क्या बनाते, ख़ुद ही अकेले पड़ गए।
शायद यही वजह है कि उन्हें चुनाव से पहले ही हथियार डालने पड़े। कहने को तो उनकी पार्टी अभी भी 10 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा कर रही है लेकिन चुनाव में ओवैसी प्रचार करने जाएंगे या नहीं यह तय नहीं है।
अलग-थलग पड़े ओवैसी
दरअसल, जिनके बलबूते ओवैसी पश्चिम बंगाल में ताल ठोक रहे थे उन्होंने ही ओवैसी का साथ छोड़कर अलग रास्ता अपना लिया। पूरी तरह अलग-थलग पड़ गए ओवैसी को पश्चिम बंगाल में पूरी मज़बूती के साथ चुनाव नहीं लड़ने का फ़ैसला करना पड़ा। उनकी पार्टी रस्म अदायगी के तौर पर ही राज्य में चुनाव लड़ कर खानापूर्ति करेगी।
देशभर में मुसलमानों का नेता बनने की कोशिशों में जुटे ओवैसी के लिए यह एक बड़ा झटका है। क्योंकि बिहार के विधानसभा चुनाव में 5 सीटें जीतने के बाद उन्होंने ज़ोर-शोर से पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ने का एलान किया था। लेकिन चुनाव आते-आते उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बन कर रह गई।
मौलाना अब्बास से मिला धोखा
करीब 6 महीने पहले बिहार विधानसभा के चुनाव में 5 सीटें जीतने के बाद ओवैसी ने फुरफुरा शरीफ़ के पीरज़ादा मौलाना अब्बास के साथ मिलकर राज्य में चुनाव लड़ने का एलान किया था। ओवैसी ने दो बार राज्य का दौरा करके मौलाना से मुलाकात भी की थी लेकिन बाद में मौलाना ने अपनी अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने का एलान किया और वामपंथी दलों और कांग्रेस के साथ गठबंधन में शामिल हो गए।
बताया जाता है कि मौलाना ओवैसी की सांप्रदायिक राजनीति से खुश नहीं थे। वो राज्य में सेक्युलर राजनीति को ही बढ़ावा देना चाहते हैं। इसीलिए उन्होंने अपनी पार्टी का नाम भी 'इंडियन सेक्युलर फ्रंट' रखा है। उनके उम्मीदवारों की लिस्ट सामने आने से भी यह साफ हो गया है कि वो सांप्रदायिक राजनीति के बदले सेक्युलर राजनीति ही कर रहे हैं। उनकी लिस्ट में मुसलिम उम्मीदवारों से कहीं ज्यादा ग़ैर मुसलिम उम्मीदवारों के नाम हैं।
ज़मीरुल हसन की बग़ावत
पश्चिम बंगाल में ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन की कमान ज़मीरुल हसन संभाल रहे थे। वो ममता बनर्जी के समर्थक माने जाते हैं। अचानक उन्होंने भी ओवैसी का साथ छोड़ दिया और अपनी पुरानी पार्टी इंडियन नेशनल लीग चलाने का फैसला किया है। ग़ौरतलब है कि 1994 तक वह इसी पार्टी को राज्य में चला रहे थे।
उनके इस फैसले के बाद ओवैसी का कारवां बनने से पहले ही बिखर गया और ओवैसी के सामने हथियार डालने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। फिलहाल ओवैसी की पार्टी में राज्य में कोई बड़ा नेता नहीं बचा है। सिर्फ़ दूसरी पंक्ति के नेता ही बचे हैं। वो अभी भी 10 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा कर रहे हैं।
बीजेपी की बी टीम होने का आरोप
दरअसल, पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले ओवैसी पर जिस तरह बीजेपी की बी टीम होने का आरोप लगा है वो उन पर भारी पड़ गया है। पश्चिम बंगाल के मुसलमानों ने ओवैसी को तवज्जो नहीं दी। बिहार में ओवैसी की पार्टी ने 25 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इनमें से 5 सीटें जीती हैं। जबकि बाक़ी जिन सीटों पर ओवैसी की पार्टी चुनाव लड़ रही थी उसमें से ज्यादातर बीजेपी जीत गई। आरोप लग रहा है कि बिहार में कांग्रेस-आरजेडी महागठबंधन की हार के लिए ओवैसी ही जिम्मेदार हैं।
करीब महीने भर पहले बीजेपी के सांसद साक्षी महाराज ने खुले तौर पर यह बात कही थी, “ओवैसी बीजेपी के मित्र हैं। जिस तरह उन्होंने बिहार में बीजेपी को फायदा पहुंचाया है उसी तरह वो पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी को फायदा पहुंचाएंगे।” इस आरोप ने ओवैसी की साख़ पर एक बड़ा बट्टा लगा दिया है।
मुसलमान ममता के साथ
पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले हाल ही में आए तमाम ओपिनियन पोल में यह बात सामने आई है कि पश्चिम बंगाल का मुसलमान ममता बनर्जी के साथ मजबूती से खड़ा है। राजनीतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि जिन मुसलमानों की ख़ातिर ममता बनर्जी पर मुसलिम तुष्टिकरण के आरोप लगाए गए हैं वो मुसलमान भला उस स्थिति में ममता बनर्जी का साथ कैसे छोड़ सकते हैं जबकि बीजेपी उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है।
जब ओवैसी को इस बात का एहसास हुआ कि इस चुनाव में मुसलमान ममता बनर्जी का साथ छोड़ने को तैयार नहीं हैं तो उन्होंने मैदान से हटने का मन बना लिया।
बीजेपी को रोकना प्राथमिकता
दरअसल, पश्चिम बंगाल में बंगाली भाषा संवेदनशील मुद्दा है। बंगाल का मुसलमान भी बंगाली भाषा ही बोलता है। ओवैसी अपनी दक्खिनी उर्दू भाषा में उन्हें लुभाने की क्षमता फिलहाल तो नहीं रखते हैं। दूसरी बात यह है कि ओवैसी की पार्टी कितनी भी ताक़त से लड़े वह बीजेपी को हराने की स्थिति में कहीं नहीं है। पश्चिम बंगाल में न सिर्फ़ मुसलमान बल्कि सेक्युलर हिंदू की भी पहली प्राथमिकता बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने की है।
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