प्रेस स्वतंत्रता दिवस गुज़र गया। भारत के सूचना विभाग के मंत्री ने इस मौक़े पर दिए गए रस्मी बयान में दावा किया कि भारत में प्रेस को पूरी आज़ादी है। इस बयान को किसी ने नोटिस लेने लायक़ नहीं समझा।
कल ही डॉयचे वेले के सालाना दिए जानेवाले फ़्रीडम अव स्पीच अवार्ड का ऐलान हुआ। भारत के सिद्धार्थ वरदराजन भी इसमें शामिल हैं। उनके साथ चीन, रूस, बेलारूस, तुर्की, ईरान, कंबोडिया, फ़िलीपींस, जॉर्डन, युगांडा, ज़िंबाब्वे, वेनेज़ुवेला के पत्रकारों को भी सम्मानित किया गया है। ये सब पत्रकार किसी न किसी रूप में अपने यहाँ की सत्ताओं के उत्पीड़न के शिकार हुए हैं। इस वजह से पत्रकारिता की दुनिया में इनकी इज़्ज़त बढ़ गई है। देशों के नाम से अंदाज़ होगा कि दुनिया का शायद ही कोई कोना हो जहाँ पत्रकार और सत्ता का रिश्ता तनाव का न हो! हम कह सकते हैं कि हम अकेले नहीं हैं।
क्यों ऐसा कोई पुरस्कार नहीं जो सत्ता से कुरबत के लिए दिया जाता हो? इसका जवाब स्पॉटलाइट नाम की एक फ़िल्म से मिलता है। यह फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है। 2001 में बॉस्टन ग्लोब नामक अख़बार मार्टी बैरन को सम्पादक के रूप में नियुक्त करता है। अख़बार में स्पॉटलाइट नामक एक विशेष खंड है जो खोजी पत्रकारिता के लिए ही है और अख़बार में उसकी ख़ास जगह है। स्पॉटलाइट टीम को एक एक ख़बर करने में महीनों की खोज, शोध और जाँच पड़ताल करनी पड़ती है। अख़बार इसके लिए उन्हें पर्याप्त अवकाश देता है।
नए सम्पादक की निगाह एक ख़बर पर पड़ती है। इसमें एक वकील का बयान है कि बॉस्टन के आर्च बिशप कार्डिनाल बर्नार्ड लॉ को यह मालूम था कि उनकी डायोसिस का एक पादरी बच्चों का यौन शोषण कर रहा है लेकिन उन्होंने उसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया। सम्पादक बैरन को यह ख़बर इतनी महत्वपूर्ण लगती है कि वह स्पॉटलाइट टीम को इसकी छानबीन करने पर लगा देता है।
फ़िल्म में एक दृश्य है जिसमें सम्पादक मार्टी बैरन की मुलाक़ात कार्डिनाल बर्नार्ड लॉ से होती है। मौक़ा दावत का है। कार्डिनाल बड़े सरपरस्ताना और दोस्ताना अन्दाज़ में बैरन से मिलता है। उन दोनों के बीच बात शुरू होती है। बर्नार्ड लॉ कहता है, इस शहर की ख़ुशहाली के लिए क्या ही अच्छा हो कि यहाँ की दोनों बड़ी और इज़्ज़तदार संस्थाएँ मिलकर काम करें!
इशारा साफ़ है। मार्टिन मद्धम लेकिन दृढ़ आवाज़ में कार्डिनाल को जवाब देता है, ‘अख़बार अच्छा काम तब करता है जब वह बिलकुल अकेले काम कर रहा हो!’ उनकी बातचीत यहीं ख़त्म हो जाती है।
अख़बार या आज जिसे मीडिया कहते हैं, वह कभी भी सत्ता के साथ मिलकर काम नहीं करता। उसका काम देश या राष्ट्र की ख़ुशहाली में योगदान करना नहीं है, बल्कि ख़ुशहाली की सत्ता की परिभाषा और उसके दावों की लगातार पड़ताल करना है।
उसे यह पता होता है या होना चाहिए कि देशहित या राष्ट्रहित हमेशा सत्ता हित में शेष हो जाता है। इसलिए वह राष्ट्रवादी नहीं हो सकता। जैसे वह राष्ट्रवादी नहीं हो सकता, वैसे ही जनतावादी भी नहीं हो सकता। वह जनता पर भी निगाह रखता है और उसे सावधान करता रहता है ताकि वह जनता के पद से च्युत होकर भीड़ में न बदल जाए। उसकी भूमिका चौतरफ़ा आलोचना की है।
अख़बार या मीडिया या प्रेस को पूरी आज़ादी इसीलिए चाहिए। इसीलिए पत्रकार अवध्य होना चाहिए। उसे सत्ता निशाना नहीं बनाएगी, यह सभ्य समाज का एक अलिखित नियम है।
प्रेस की आज़ादी का मतलब सम्पादक या पत्रकार की बोलने और लिखने की आज़ादी से लगाया जाता है। पहला अर्थ उसका यही है। लेकिन क्यों सम्पादक और पत्रकार को यह आज़ादी होनी चाहिए? इसलिए कि बिना उसके एक दूसरे और जनतंत्र के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार की रक्षा नहीं हो सकती। वह है जनता का जानने का अधिकार।
जो जानती नहीं, वह जनता नहीं। प्रजा से जनता बनने में प्रेस उसकी मदद करता है। वह उसे जानकारी देता है। वह सूचना भर नहीं है। वह उसे अपने बारे में और अपने परिवश के बारे में सोचने और उसके प्रति अपना नज़रिया बनाने में उसकी सहायता करता है।
माखनलाल चतुर्वेदी के विचार
आज से कोई सौ साल पहले, 1927 में भरतपुर में पत्रकार परिषद के सम्मेलन की अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी ने की। हम उन्हें एक भारतीय आत्मा नाम से भी जानते हैं। उनका उस अवसर पर दिया गया व्याख्यान जनता के जानने के संदर्भ में पत्रकारिता की भूमिका की व्याख्या है और इसे पढ़ना प्रत्येक पत्रकारिता संस्थान में अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार की तुलना कवि से करते हैं, ‘मैंने यह सुना है कि राष्ट्र अथवा मानव-हृदय की धमनियों को फड़का देने वाले कवि अपने आप ही जन्म लेते हैं…’ वे इसके समक्ष अंग्रेज़ लेखक जॉन पेंडलटन को याद करते हैं जिनके मुताबिक़ ‘ऑक्स्फ़र्ड का गौरव, कैम्ब्रिज की कीर्ति और बैरिस्टरी का बड़प्पन पत्र सम्पादन से अधिक क़ीमत का नहीं ठहरता।’
‘यहाँ तो स्वभाव जन्य बेचैनी ही अधिक यशस्विनी होती है।’ माखन लाल चतुर्वेदी की भाषा का हिंदी में विशेष स्थान है। वह पत्रकारिता को एक कला मानते हैं। लेकिन कैसी कला? वह भी सौंदर्य का व्यापार ही है लेकिन, ‘इस कला की उपमा है वह सौंदर्य जो प्राणों के मूल्य का है चूँकि वह भय की गोद में निवास करता है। भय की गोद में निवास करनेवाला सौंदर्य सजाए हुए राजमहलों में नहीं रहता, वह प्रकृति के द्वारा निर्माण की हुई जोखिम की जगहों में निवास करता है।’
हृदय की लगन के साथ इस कला का जीवन है ‘सहृदयता, धीरज, बेचैनी और स्वाभिमान का स्वभाव सिद्ध होना।’ कवि की समझ है कि ये गुण कहीं सीखे नहीं जा सकते। इसलिए अगर पत्रकारिता की कला का द्वार खटखटाना है तो पहले स्वभाव को समझना आवश्यक है। अगर इन गुणों से हीन और वंचित लोग इस कला के संसार में प्रवेश कर जाते हैं तो वे देश की हलचलों पर व्यर्थ ही बोझ बढ़ाएँगे।
सहृदयता किसके प्रति? धीरज किसके लिए? और लगन किसकी? इन सवालों के उत्तर इतने कठिन नहीं होने चाहिए। स्पष्ट करने के लिए कहा जा सकता है कि कवि या उपन्यासकार की तरह ही पत्रकार की पहली दिलचस्पी जीवन और लोगों में होनी चाहिए। जैसे साहित्य के बारे में कहा जाता है कि वह सबसे अधिक वेध्य का पक्षधर होता ही है, वैसे ही पत्रकारिता अनिवार्यतः उसकी तरफ़ से की जाती है। यह कहना अनैतिक है कि पत्रकारिता निष्पक्ष होती है। उसका पक्ष सत्य का है।
सत्य जनता को बताया जाना है। इसलिए कि उसी के सोचने और निर्णय करने पर जनतंत्र टिका है। वह स्वाधीन हो सके, स्वायत्त हो सके, स्वयं निर्णय ले सके, इसके लिए उसे सारी सूचना चाहिए और सूचना का स्रोत सत्ता नहीं हो सकती।
सत्ता सूचना के रास्ते में रुकावट खड़ी करती है क्योंकि उसे सच्चाई मालूम है। सच्चाई जनता को मालूम होनी है। इसीलिए माखनलाल चतुर्वेदी उसे जनता की पाठशाला कहते हैं। वह जनता की शिक्षक है। सच्चा शिक्षक का दायित्व है कि अपने विषय की किसी सूचना को छात्र तक पहुँचने से न रोके। उसका काम उसे विश्लेषण के औज़ार हासिल करने में मदद करना भी है। उसे छात्र को अपने आग्रहों का बंदी बनाना या अपना अनुयायी बनाना नहीं है। वह कोई सम्प्रदाय नहीं गठित करता। उसका काम है बुद्धि को स्वतंत्र और स्वस्थ करना।
इसीलिए पत्रकार का प्रयास भी ख़ुद को हर तरह की उत्तेजना से बचाने का होना चाहिए। वह न ख़ुद उत्तेजित हो, न पाठक या दर्शक को उत्तेजित करे। उत्तेजना की अवस्था में विचार हमेशा त्रुटिपूर्ण होगा ही।
इस व्याख्यान में हर जगह माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता को विश्वविद्यालय से अधिक गौरव देते हैं। यह ऐसा विश्वविद्यालय या पाठशाला है जिसमें हर कोई प्रवेश कर सकता है। इसलिए इसका दायित्व भी बढ़ जाता है। इस दायित्व को कैसे समझें?
पत्र का पाठक या मीडिया का दर्शक ऐसा प्राणी है जिसके पास ऐसा कोई साधन नहीं जिससे वह दी जा रही सूचना की पड़ताल कर सके। आप कोई शोधपत्र लिखें और उसमें कोई ग़लती हो तो उसपर ध्यान दिलाने के लिए उस क्षेत्र के दूसरे अध्येता या विद्वान हैं। उसमें होनेवाली चूक से कोई बड़ा नुक़सान न होगा। लेकिन अगर अख़बार में या मीडिया में अगर सूचना ग़लत हो या जानबूझ कर विकृत की जाए तो उससे होने वाली हानि का अन्दाज़ करना कठिन है। उसके आधार पर पाठक या दर्शक अपनी राय बना चुके होते हैं।
पहले मिलने वाली सूचना हमेशा अधिक प्रामाणिक मानी जाती है। बाद में अगर भूल सुधार किया जाए तो भी परवर्ती सूचना के प्रति संदेह बना रहता है। इसीलिए मीडिया की ज़िम्मेवारी कहीं अधिक बड़ी है।
जीवन और जन के प्रति लगाव और हृदयगत व्यग्रता के कारण पत्रकार दिन रात सड़क पर पैदल चल रहे श्रमिकों के साथ चल रहे हैं। लेकिन वे कितने कम हैं! हिंदी अख़बारों ने कितने रिपोर्टर इस काम पर लगाए हैं? क्यों वे पाठक या दर्शक से सूचना छिपा रहे हैं और क्यों एक नक़ली सूचना का निर्माण कर रहे हैं?
इस प्रकार का सारा मीडिया सूचना और प्रसारण मंत्री के सर में सर मिला सकता है कि हम तो स्वतंत्र हैं। लेकिन जैसा किसी मित्र ने ठीक ही कहा कि जो आज चीख रहा है, जो उत्तेजित है लेकिन जो दुखी नहीं, वह आज़ाद है ज़रूर लेकिन उसने वास्तव में पत्रकारिता के धर्म से ही ख़ुद को स्वतंत्र कर लिया है।
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