प्राथमिक भाव भय का था। फिर घृणा। और तब स्वाभाविक क्रम में हिंसा। यह कैसे हुआ जबकि घोषणा युद्ध की की गई थी प्रत्येक देशवासी को योद्धा की पदवी प्रदान की गई थी? पूरे देश को मिलकर युद्ध करना था, यही तो कहा गया था? योद्धाओं के लिए शंखनाद किया गया था, आकाश से पुष्पवर्षा भी की गई थी? तो योद्धा कौन था और युद्ध के साथ लगा हुआ स्वाभाविक भाव वीरता को कहाँ देखा हमने? इन दो महीनों में वीरता की कितनी छवियाँ आपको याद आती हैं?
वे जो सबसे अधिक सुरक्षित थे, आर्थिक और सामाजिक रूप से और हर प्रकार से, वे सबसे अधिक डरे हुए थे और अब तक हैं। आप बड़े गेटवाली कॉलोनियों को देख लीजिए। डरे हुए लोग, अपने दड़बों में दुबके हुए। जिनके सहारे उनकी गृहस्थी चलती है, उन्हें हर बहाने से दूर करते हुए। वे जिनका स्वास्थ्य सबसे अधिक सुरक्षित है क्योंकि उनके पास पैसा है और पहुँच भी, वे सबसे अधिक डर गए उन्होंने ख़ुद को बंद कर लिया। इस वर्ग के पास पोषण और संपन्नता के कारण सबसे अधिक प्रतिरोधक क्षमता है लेकिन इसने इस क्षमता का इस्तेमाल समाज के लिए नहीं किया।
सामाजिक दूरी इस समुदाय का अस्तित्व तर्क है। कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के नाम पर इस जीवन सिद्धांत को और बल मिला। एक नया वैज्ञानिक औचित्य एक पुरानी सामाजिक व्याधि को और गहरा करने का अब इस वर्ग को मिल गया है। इसका इस्तेमाल किया जाता रहेगा।
सामाजिक दूरी एक प्रकार की राजनीति का सिद्धांत भी है। वह भारत में शासन कर रही है लेकिन वह विश्व भर में फिर से उभरती हुई राजनीतिक विचारधारा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख ने बयान जारी किया कि पूरी दुनिया में जातीय राष्ट्रवाद और घृणा की सुनामी आ गई है। यहूदी विरोध, मुसलमान विरोध, आप्रवासी विरोध का तूफ़ान सा आ गया है। उन्होंने कहा, ‘ऑनलाइन और सड़कों पर विदेशियों के ख़िलाफ़ भावना में उबाल आ गया है। यहूदियों के ख़िलाफ़ षड्यंत्रवादी सिद्धांत का प्रसार किया जा रहा है और कोविड-19 के बहाने मुसलमानों पर हमले किए जा रहे हैं। प्रवासियों और शरणार्थियों को वायरस का स्रोत बताया जा रहा है और उन्हें चिकित्सा सुविधा से वंचित किया जा रहा है।’
साथ ही उन्होंने वृद्ध लोगों के प्रति अपमानजनक मीम की लोकप्रियता पर अफ़सोस ज़ाहिर किया। मरने के लिए बूढ़ों को सबसे पहले छोड़ा जा सकता है।
सामाजिक दूरियाँ इस बीच बढ़ीं। वायरस का संक्रमण इन दूरियों से अधिक ख़तरनाक नहीं है और वह इन दूरियों के कारण और अधिक घातक ही होगा।
लेकिन यह समझना इस उन्मादी राष्ट्रवादी दौर में कठिन है। क्योंकि राष्ट्रवादी पहले से ही अपने राष्ट्र की देह को बाहरी दूषण से सुरक्षित करने के अभियान में लिप्त हैं, उन्हें व्याधि के स्रोत की पहचान के लिए अधिकार मिल गया और नया उत्साह भी। यह हिंसा का उत्साह था और इसमें भी राष्ट्र रक्षक होने का सुख था।
भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ पल रही घृणा और हिंसा, जो नए नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ उनके विरोध पर पहले ही व्यक्त हो रही थी, नए सिरे से गहरी और तीखी हो गई। इसका भी औचित्य खोज लिया गया। तब्लीग़ी जमात को संक्रमण का सबसे बड़ा स्रोत बताकर, और ऐसा करनेवालों में कई समझदार शामिल थे, यह कहा गया कि बेचारे हिंदू को कैसे मालूम हो कि उसके इलाक़े का मुसलमान किसी तब्लीग़ के सदस्य से नहीं मिला है। मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार, उनपर शारीरिक हमले और उनके ख़िलाफ़ नफ़रत का प्रचार, सब कुछ इस कदर बढ़ गया है कि लगभग स्थायी और नियमित हो गया है। इस पर ध्यान देना भी लोगों ने बंद कर दिया है। गाँव-गाँव में मुसलमानों से यह दुराव इस कोरोना वायरस के दौर के गुज़र जाने के बाद भी बना ही रहेगा, हम जानते हैं। रोहिंग्या शरणार्थी दूसरे शिकार हैं इस घृणा के।
नेताओं के पास साहस नहीं
डरे हुए वे सब थे जो ख़ुद को नेता कहते हैं। वे जितना इस नए और अजाने वायरस से डरे उससे ज़्यादा यह देखकर कि संकट के क्षण में जनता के सबसे कमज़ोर और वेध्य तबक़ों के साथ खड़े होने के लिए जो नेतृत्व क्षमता और साहस चाहिए, वह उनके पास है ही नहीं। हम भारतीय जनता पार्टी से यह उम्मीद नहीं करते लेकिन क्यों दूसरे दलों ने इस मुसलमान विरोधी घृणा के ख़िलाफ़ कोई अभियान नहीं चलाया, यहाँ तक कि उस तरह का बयान भी नहीं दिया जो संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख ने दिया, क्यों उन्होंने इस नफ़रत को नज़रअंदाज़ कर दिया? क्या इसलिए कि वे माने बैठे हैं कि बहुसंख्यक हिंदू का स्वभाव मुसलमान विरोधी ही है?
क्या यह आश्चर्य नहीं कि इस बीच किसी के मुँह से हमने उसका ज़िक्र नहीं सुना जिसके नामोच्चार के बिना भारतीय राजनीति एक क़दम नहीं चलती? उस गाँधी का और उस पटेल का? क्या इसलिए कि ये ठीक आपदा के बीच जा खड़े हुए थे अपने लोगों के साथ?
आज के नेताओं की तरह उनसे दूरी बनाकर ख़ुद को सुरक्षित नहीं कर लिया था? उर्विश कोठारी ने दक्षिण अफ़्रीका के गाँधी के दिनों को याद किया है। 1904 में जोहानसबर्ग में फैले ब्लैक प्लेग के बीच बीमार लोगों की सेवा करने के लिए उन्होंने अपनी जान को ख़तरे में डाला। उन्होंने स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर काम किया लेकिन प्लेग के बीच उसकी कोताही के लिए उसकी तीखी आलोचना भी की। उर्विश लिखते हैं कि वे सुरक्षित दूरी से स्थिति पर नज़र नहीं रख रहे थे बल्कि बीच मैदान में थे।
इसी लेख में गुजरात में बोरसाद में 1932 के प्लेग के दौरान सरदार पटेल की भूमिका का ज़िक्र भी है। उन्होंने एक डॉक्टर की सलाह ली और ख़ुद मोर्चा सम्भाला। एक पेड़ के नीचे पंडाल में उन्होंने अपना दफ़्तर बनाया। वहीं बैठकर उन्होंने कार्यकर्ता भर्ती किए, मरीज़ों की देखभाल की, अस्पताल में बिस्तरों का इंतज़ाम किया, लोगों को प्लेग के ख़तरे से सावधान किया, उन्हें जागरूक करने के लिए पर्चे लिखे। गाँव-गाँव घूमे। गाँधी और महादेव देसाई भी पटेल का साथ देने वहाँ पहुँचे, उन्हीं के बग़ल में डेरा डाला, घर-घर जाकर लोगों से मिले।
पटेल, गाँधी, देसाई को मालूम था कि वे प्लेग के शिकार हो सकते हैं। लेकिन वे अपने लोगों को डराना नहीं चाहते थे, उनमें हिम्मत भरना चाहते थे। (लेख का लिंक)
आज के नेता क्या कर रहे हैं और कहाँ नज़र आ रहे हैं? उन्होंने लोगों में डर पैदा करने के अलावा, उन्हें भीरु बनाने के अलावा क्या किया है?
मुसलमानों पर हमले के ख़िलाफ़ हमारे नेता कहाँ हैं? भूखे, प्यासे पैदल चलते, ट्रेन के नीचे कट मरते, दम टूट जाने से मारे जाते और दाने दाने को तरसा दिए गए इंसानों के क़रीब कौन है? उनकी हिम्मत तोड़ी जा रही है, उनका सम्मान धूल में मिलाया जा रहा है। हमारे नेता कहाँ हैं?
जान है तो जहान है, इस नारे की तारीफ़ करने के पहले सोचना था कि यह वास्तव में लोगों को अपनी जान बचाने भर की ख़ुदगर्ज़ी में गर्क कर देगा और दूसरों से दूर कर देगा। वही हुआ है।
कोरोना संक्रमण की आशंका के इन दो महीनों में समाज पहले के मुक़ाबले अधिक डरपोक, इसलिए अधिक स्वार्थी, अधिक शंकालु, दूसरों से अधिक दूर, और इन्हीं वजहों से अधिक हिंसक और क्रूर हो गया है।
हम उनकी बात न करें जो इस घड़ी इंसानियत की याद को ज़िंदा रखने के लिए भाग-भाग कर भूखे प्यासे लोगों तक किसी भी तरह कुछ राहत पहुँचाने के जतन में लगे हैं। यह डरा हुआ समाज इनकी बहादुरी को अपनी शर्म ढँकने के लिए आड़ बनाएगा। लेकिन यह चतुराई है। क्योंकि यह मानवीयता इस भीरु और दास समाज के बीच अपवाद है। इसे यह समाज अपना गुण न कहे। इन्हीं में से लोग गिरफ़्तार किए जा रहे हैं, इन्हीं पर सरकार की ख़ुफ़िया निगाह गड़ी हुई है और जब वह इन्हें निशाना बनाएगी तो यह कायर बना दिया गया समाज फिर इन्हीं का खून माँगेगा। इससे उसे फिर साहस का भरम होगा।
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