loader
इतिहासकार प्रोफेसर रोमिला थापर

भारत में जब दो तरह का इतिहास होगा

कोलकाता यात्रा के दौरान इतिहासकार रोमिला थापर से भारत में और भारत के बारे में इतिहास लेखन पर चर्चा हो रही थी। उन्होंने कहा कि समय आ रहा है जब भारत के बारे में दो तरह का इतिहास होगा। एक वह जो भारत के लोगों द्वारा, भारत की शिक्षा संस्थाओं में लिखा और पढ़ा जाएगा और दूसरा वह जो भारत के बाहर के शिक्षा संस्थानों में भारत के विशेषज्ञों द्वारा लिखा और पढ़ा जाएगा। इन दोनों के बीच में कोई मेल न होगा। उदाहरण के लिए भारत में लिखे इतिहास में भारत की संस्कृति 12 हज़ार साल पुरानी बतलाई जाएगी और भारत के बाहर इसे लेकर कोई तयशुदा राय शायद न हो।उसी तरह भारत के भीतर के इतिहासकार हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप को विजयी बतलाएँगे और बाहर लिखे गए इतिहास में इसे आज के सत्ताधारियों की कल्पना के तौर पर दर्ज किया जाएगा। 
यह कोई बहुत दूर की बात नहीं है। आज ही ऐसे किताबें लिखी जा रही हैं जिनके भारतीय संस्करण और विदेशी संस्करण में ख़ासा अंतर होता है। ऐसे तथ्य या व्याख्या को जो आज ही भारत के शासक दल और उसके आनुषंगिक संगठनों को नापसंद है , भारतीय संस्करण से हटा दिया जाता है लेकिन उसे विदेशी संस्करणों में पढ़ा जा सकता है।मात्र भारत के बारे में ही नहीं, किसी भी प्रसंग के बारे में यह फ़र्क देखा जा सकेगा।
रोमिला थापर की चिंता यह है कि आज के शोधार्थियों और अध्येताओं का इतिहास अध्ययन और लेखन का प्रशिक्षण पेशेवर आवश्यकताओं के मुताबिक़ न होकर विषय से इतर ज़रूरत से परिचालित होगा।यानी उनके पास इतिहास का बोध ही नहीं होगा। तथ्य संग्रह, तथ्य को तथ्य की सत्ता प्राप्त करने के लिए क्या क्या आवश्यकता होती है, प्रमाण इकट्ठा करने की पद्धति या पद्धतियों की समझ, स्रोतों की समझ और उनकी जाँच, यह सब कुछ और उसके बाद एक ही तथ्य के बारे में प्रतियोगी स्थापना से जूझना, यह सब कुछ इस प्रशिक्षण का हिस्सा है।इसी केसाथ हम यह भी सीखते हैं कि शोध के दौरान हम अपने इच्छित को येन केन प्रकारेण स्थापना में नहीं बदल देते। यह सिर्फ़ हाँ पर नहीं, हमारे हमपेशा अध्येताओं की स्वीकृति पर भी निर्भर है। शोध के बाद हम अपनी शुरुआती समझ में संशोधन भी करते हैं।
ताजा ख़बरें
इतिहास सिर्फ़ इतिहास के सहारे नहीं किया जा सकता। मानवशास्त्र, जंतुशास्त्र, आनुवंशिकी, भाषा विज्ञान आदि क्षेत्रों में उपलब्ध ज्ञान से उसका गहरा रिश्ता है। तो इतिहासकार को अन्य क्षेत्रों से जीवंत संपर्क बनाए रखना होता है। वहाँ किसी एक तथ्य की समझ भी नए शोध , नई खोज के आधार पर बदलती रहती है। इतिहासकार को उसे खाते में लेना होता है। 
इतिहास गर्व और शर्म से परे होता है, वह समझने की चीज़ है। जो हमसे पहले किया जा चुका है, वह जिनका निर्णय है, वे न तो हमारे प्रति ज़िम्मेवार थे और न हम उनके प्रति ज़िम्मेवार हैं। इतिहास बोध इन सबसे मिलकर बनता है। वहन तो कीर्तन की वस्तु है, न धिक्कार की।
इतिहास से,विशेषकर उससे जो हमारे लिए असुविधाजनक हो, हम किस प्रकार का रिश्ता बनाते हैं, इससे हम ख़ुद अनावृत होते हैं। क्या हम औरंगज़ेब को अस्वीकार करते हैं  और यह कहते हैं कि दारा शिकोह बेहतर शासक होता क्योंकि उसने ‘हिंदू’ परंपराओं के प्रति सहानुभूति दिखलाई थी? इससे मात्र हमारे आग्रहों का पता चलता है, औरंगज़ेब या दारा शिकोह के बारे में हमारी उत्सुकता का नहीं।
जब हम तय करते हैं कि हम मुग़ल काल को महत्त्व नहीं देंगे क्योंकि हमारे मुताबिक़ वे क्रूर थे और उस काल को लेकर न शोध करेंगे , न उसका अध्ययन तो होगा क्या? वह काल तो रहेगा ही और उसे पढ़ने और उस पर शोध करने वाले भी होंगे ही लेकिन वे भारत में नहीं और शायद भारतीय भी न होंगे। उसका ज्ञान भारत से बाहर चला जाएगा जैसे एक समय संस्कृत का ज्ञान भारत से बाहर ही विकसित होता रहा।
रोमिला थापर की तकलीफ़ समझी जा सकती है। इतिहास के अनुशासन का उल्लंघन करके इतिहास नहीं लिखा जा सकता। इतिहासकार एक दूसरे से मतभेद रखते हैं, बहस करते हैं लेकिन उस अनुशासन के भीतर। कोलकाता प्रतिक्षण प्रकाशन गृह में ही एक गोष्ठी में, जहाँ रोमिला थापर की एक किताब का बांग्ला अनुवाद लोकार्पित किया जा रहा था, प्रकाशक महोदय ने बतलाया कि पिछले विधानसभा चुनाव में बँगाल के मतदाताओं को यह कहकर उत्तेजित किया जा रहा था कि आजतक तुमने रोमिला का इतिहास पढ़ा है, जदुनाथ सरकार का नहीं। 

रोमिला को ख़ुद जदुनाथ सरकार का इतिहास पढ़ने और पढ़ाने से इंकार न होगा क्योंकि वे इतिहासकार हैं। लेकिन क्या पी एन ओक को इतिहासकार कहा जा सकता है?


हम कक्षा में छात्रों को पुस्तक और पुस्तकाभास का अंतर करना सिखलाते हैं। तर्क और तर्काभास का फ़र्क। ज्ञान के अनुशासन का सम्मान। इतिहास का बोध बना रहना आवश्यक है।लेकिन वह दूसरे ज्ञानानुशासन के बोध के बने रहने से जुड़ा हुआ है। अभी मालूम हुआ कि दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकारी अर्थशास्त्र में स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम से तीन ऐच्छिक पर्चों को हटाना चाहते हैं। ये पर्चे हैं, ‘अर्थव्यवस्था, राज्य और समाज’,  ‘उत्पादन संबंध और भूमण्डलीकरण’ और ‘ भेदभाव का अर्थशास्त्र’। अधिकारियों की समझ है कि इन पर्चों  में मार्क्सवाद का प्रभुत्व है। 
मार्क्सवाद का राजनीतिक प्रभाव कितना ही कम हो गया हो, अकादमिक संसार में उसका महत्व बना हुआ है।अर्थशास्त्र के स्नातक को अगर राज्य, समाज से अर्थव्यवस्था के संबंध का पता न हो या वह उत्पादन संबंधों की कोई समझ न पा सके या अगर मार्क्स को नहीं पढ़े तो फिर अर्थशास्त्र नामक अनुशासन की उसकी समझ में और शेष विश्व में अर्थशास्त्र जैसे समझा जाता है, उसकी समझ में काफ़ी फर्क आ जाएगा।
हाल में सरकार ने घोषणा की है कि अब आयुर्वेदिक मनोविज्ञान और मानस रोग में परास्नातक की उपाधि दी जासकती है। उसके पाठ्यक्रम का अनुदान इससे किया जा सकता है कि मानसिक विचलन के लिए ज़िम्मेवार प्रेत बाधाओं को दूर करने की विधि सिखाने का प्रस्ताव है। अवसाद और बेचैनी के शिकार रोगियों का इलाज करने के लिए उल्लू या साही केपंखों या बाल जलाकर उसे मसालों बकरी के मूत्र के साथ अगर रोगी को सुँघाया जाए तो वह निरोग हो सकता है। 
वक़्त-बेवक़्त से और खबरें
इस पाठ्यक्रम में रोगी को अकेले भूखा, प्यासा रखकर लगातार आध्यात्मिक प्रवचन सुनाया जाए , फिर रस्सी से बाँधकर खुजलीवाले पौधे उसके शरीर पर फिराए जाएँ और उसे साँप से डराया जाए  और इनमें से कुछ  काम करे तो जान से मारने की धमकी दी जाए।

जैसे इतिहास या अर्थशास्त्र वैसे ही चिकित्सा शास्त्र के अनुशासन को भी यदि भंग कर दिया तो क्या बचता है? क्या इस आयुर्वेदिक पद्धति से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग अपना इलाज करवाएँगे या वह गरीब हिंदुओं के लिए है जो अब तक इससे वंचित रखे गए हैं? वैसे ही, जैसा कई लोग पूछते हैं कि इन सबके बच्चे तो अमरीका या यूरोप में पढ़ेंगे जहाँ यह राष्ट्रवादी इतिहास या अर्थशास्त्र या चिकित्सा शास्त्र नहीं पढ़ा जाता लेकिन भारत के युवकों के लिए  वे भारतीय ज्ञान का गुणगान कर रहे हैं।


हवाईअड्डे पर जहाज़ का इंतज़ार करते हुए रोमिला जी  ने कहा कि भारत में अभी जो हो रहा है, वह चीन की सांस्कृतिक क्रांति जैसा ही है। उसने एक पूरी पीढ़ी को इसी प्रकार ज्ञान से बोध से वंचित कर दिया। जब उसका ज्वार उतरा तो चीन के विश्वविद्यालयों  ने बाहर से विशेषज्ञ और विद्वानों को बुलाया ताकि वे इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान का बोध समाज में बहाल कर सकें। क्या आज से 10 या 20 वर्ष बाद हम भी यही करने को बाध्य होंगे?
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
अपूर्वानंद
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

वक़्त-बेवक़्त से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें