आम आदमी पार्टी (आप) की दिल्ली में जीत के बाद भारत में नई किस्म की राजनीति पर नए सिरे से बहस छिड़ गई है। इस बहस से 9 साल पहले की चर्चा की याद आ जाती है। तब 'आप' का उदय हुआ ही था। जातियों और धर्मों से परे जिसकी अपील हो, जो स्वच्छ राजनीति में यकीन करती हो, यानी जहाँ पैसे का लेन-देन नहीं है और जो पार्टी “आला कमान” किस्म की नेतृत्व प्रणाली से अलग विकेन्द्रित जनतांत्रिक तरीके से अपने निर्णय करती हो, ऐसी एक पार्टी की संभावना से ख़ास तरह की सनसनी राजनीतिक हवा में फैल गई थी। कहा गया कि यह ऐसी पार्टी होगी जिसमें बुद्धिजीवी भी अपनी भूमिका निभा पाएँगे और अलग-अलग किस्म के पेशेवर (प्रोफ़ेशनल) लोग भी।
कितनी ‘नई’ रह गई है आम आदमी पार्टी की राजनीति?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 17 Feb, 2020

‘आप’ के गठन के वक्त एक नई किस्म की राजनीति की बात कही गई थी। उस दौरान तमाम सामाजिक आंदोलनों में शामिल लोग उत्साहित हो उठे थे कि अब राजनीति को भीतर जाकर सकारात्मक दिशा में प्रभावित किया जा सकता है। लेकिन कुछ वक्त बाद ही इनमें से हरेक का भ्रम टूट गया। उम्मीदों के साथ 'आप' के साथ राजनीति का तजुर्बा करने गए ढेर सारे लोग टूटे हुए दिल लेकर बाहर आए।
‘आप’ के गठन से सामाजिक आंदोलनों से, जैसे नर्मदा बचाओ आंदोलन से लेकर सूचना के अधिकार आंदोलन के सदस्य, छोटे-मोटे दूसरे आंदोलनों की तो बात ही छोड़ दीजिए, उत्साहित हो उठे कि अब राजनीति को भीतर जाकर सकारात्मक दिशा में प्रभावित किया जा सकता है। ज्यादा वक्त नहीं बीता कि इनमें से हरेक का 'आप' को लेकर भ्रम टूट गया। इन उम्मीदों के साथ 'आप' के साथ राजनीति का तजुर्बा करने गए ढेर सारे लोग टूटे हुए दिल लेकर बाहर आए। एकाध ने नया राजनीतिक प्रयोग करने की भी ठानी। लेकिन अब तक इनमें से ज़्यादातर ने ईमानदारी से यह नहीं बताया कि आख़िर उनका मोह भंग हुआ कैसे और क्योंकर! मानो यह कोई निजी प्रेम संबंध था जिसमें कोई पक्ष किसी को शर्मिंदा नहीं करना चाहता। संभव है, इसे सार्वजनिक न करने का एक कारण यह भी रहा हो कि इससे खुद उनके राजनीतिक विवेक पर सवाल उठते।