जैसे जैसे चुनाव करीब आ रहा है, वैसे वैसे सत्तासीन नेताओं की चिंता लगातार बढ़ती जा रही है। कहीं पर पहले से चल रही स्थायी राज्य सरकारों को अपने में मिलाया जा रहा है, तो कहीं पर अपनी सरकारों से जन आंदोलनों को-जो वर्तमान सत्ता को नुकसान पहुँचा सकते हैं-आहत करने की कोशिश की जा रही है। 25 जनवरी, राष्ट्रीय मतदाता दिवस, पर बोलते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि- परिवारवादी पार्टियों की सरकारों के कार्यकाल में भारत के युवाओं का भविष्य ‘अंधकारमय’ बना दिया गया था। जबकि मौजूदा केंद्र सरकार ने उस स्थिति से बाहर निकाल लिया है।
प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं उससे साफ है कि उनकी आत्ममुग्धता उन पर हावी हो गई है। 2014 में नरेंद्र मोदी ने देश में 2 करोड़ नौकरियां प्रतिवर्ष पैदा करने का वादा किया था लेकिन वो इसे पूरा करने के आसपास भी नहीं पहुँच सके, अग्निवीर जैसी योजनाओं से छात्रों का मनोबल तोड़कर रख दिया, सरकारी नौकरियों में नियुक्तियाँ न के बराबर निकल रही हैं, UPSC की परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों के साथ होने वाले अन्याय के लिए भी पीएम ने कुछ नहीं किया, धार्मिक रैलियों और कार्यक्रमों में युवाओं की बढ़ती भागीदारी उनके भविष्य को धरातल की ओर धकेल रही है, युवाओं की किसी भी समस्या को, चाहे वो शिक्षा या रोजगार से संबंधित हो या फिर शिक्षण संस्थाओं के गिरते हुए शैक्षणिक स्तर से, किसी भी मामले में सरकार कभी भी कोई बात सुनने को तैयार नहीं होती है। वर्तमान में जितनी बुरी हालत भारतीय युवाओं की है उससे तो लगता है कि उन्हे प्रकाश से अंधकार में घुसाया जा रहा है।
युवाओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री की हताशा बेहद बढ़ जाती है क्योंकि अपने लगभग 10 सालों के कार्यकाल में वो युवाओं के लिए कुछ भी कर सकने में विफल रहे हैं। इसके बाद भी वे चाहते हैं कि देश का युवा अपना वोट उन्हें ही दे, तो युवाओं से वोट छीनने के लिए प्रधानमंत्री युवाओं को उन्हे अनुच्छेद-370, राम मंदिर और वैश्विक स्तर पर ‘भारत की साख’ जैसी ही बातों से लुभा रहे हैं। एक युवा जिसके पास काम करने के लिए दशकों का समय है, असीमित ऊर्जा और साहस है उसे आर्थिक स्वतंत्रता चाहिए। मंदिर-मस्जिद से उसमें घृणा का विकास तो हो सकता है लेकिन उसके अपने सर्वांगीण विकास में रत्ती भर भी बढ़ोत्तरी असंभव है। लेकिन प्रधानमंत्री जी की परेशानी यह है कि वो और उनकी सरकार नीतियों की असफलता के किले दर किले बनाते जा रहे हैं और कुछ लोगों को छोड़कर किसी भी वर्ग के लिए कुछ भी कर पाने में अभी तक असफल हैं और इसके बावजूद उन्हे एक और 5 वर्ष चाहिए ताकि कुछ और समय तक प्रधानमंत्री का सुख प्राप्त कर सकें।
पीएम कहते हैं कि युवा सदा से मेरी प्राथमिकता रहे हैं। ‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्टार्ट-अप इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों ने असीमित अवसर पैदा किए हैं। और बोलते बोलते कह जाते हैं कि यह ‘मोदी की गारंटी’ है। मुट्ठी भर प्रबंधन के लोगों को कमरे में बिठाकर एक नारा ‘मोदी की गारंटी’ चुन लिया गया है और अब यह किसी इश्तेहार की तरह, थोड़ी थोड़ी देर में मुंह से निकाला जा रहा है। जबकि मोदी यह नहीं बताते कि उनकी योजनाएं असफलता की जीती जागती मिसाल बन चुकी हैं। काँग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने 16 जनवरी-नेशनल स्टार्ट-अप-डे के दिन पीएम मोदी से सवाल पूछा कि “बीजेपी ने 2019 के अपने चुनावी घोषणापत्र में यह दावा किया था कि वो स्टार्ट-अप को 20 हजार करोड़ रुपये की निधि उपलब्ध करवाएगी, वो निधि कहाँ है?”
असलियत यह है कि सरकार ने अभी तक 20 हजार करोड़ के वादे के सापेक्ष मात्र 525 करोड़ रुपये की निधि ही अनुमोदित की है। स्टार्ट-अप की हालत वर्तमान में यह है कि वो पिछले 5 सालों के निम्नतम फन्डिंग के दौर से गुजर रहे हैं। 2021 के सापेक्ष 2022 में लगभग 44% कम फन्डिंग हुई और 2023 में 2022 की अपेक्षा यह फन्डिंग 67% और भी घट गई। सिर्फ 2.5% स्टार्ट-अप को ही टैक्स से संबंधित लाभ दिए गए हैं, बाकि का क्या? 2023 में मात्र 2 स्टार्ट-अप, यूनीकॉर्न की स्थिति में पहुँच सके हैं। भारतीय स्टार्ट-अप इकोसिस्टम की हालत 2019 के पहले के दौर में पहुँच रही है। स्वाभाविक है कि नौकरियां जाएंगी ही। कोविड-19 के दौरान लगे लॉकडाउन और उस दौरान गई नौकरियों को छोड़ भी दिया जाए तब भी पिछले दो सालों में भारतीय स्टार्ट-अप से 1 लाख से भी अधिक नौकरियां जा चुकी हैं।
एक स्वतंत्र थिंक टैंक, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार, भारत की बेरोजगारी दर 2021 और 2022 के अधिकांश समय में 7% से अधिक थी, और यह दिसंबर 2022 में 7.9% तक पहुंच गई। साफ है कि बेरोजगारी की हालत मोदी सरकार से संभल नहीं रही है।
अब इतना सब होने के बाद युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पीएम मोदी नौकरी, बेहतर जीवन स्तर, बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं, पिछली पीढ़ी को पेंशन जैसी बातें तो बता नहीं सकते क्योंकि इन क्षेत्रों उनका हाँथ बहुत ज्यादा तंग है इसलिए ‘राम’, ‘ज्ञानवापी’, अनुच्छेद-370, G20 और भारत की साख जैसे अमूर्त और पूर्वगामी विषयों को लेकर ही आगे बढ़ने पर आमादा है।
मीडिया के मृत शरीर से अपना एजेंडा स्थापित करने में लगी सरकार जो मन में आ रहा है बोल रही है, बिना इस बात की चिंता किए कि जनता इसे कहीं गलत न समझ ले। मीडिया लगातार बीजेपी और उनकी सहयोगी पार्टियों के पक्ष, दृष्टिकोण और संभावनाओं को लेकर बात कर रहा है। हर रोज सत्ता का गुणगान करने के लिए पत्रकारों में होड़ लग जाती है। यह बिल्कुल अलग दौर है जब अपने काम से बेइमानी करने के बावजूद मीडिया ‘आत्मविश्वास’ से लबरेज है। “मंदिर जाओगे तो अस्पताल जाने की जरूरत ही नही पड़ेगी” जैसी बातें खुलेआम मीडिया के लोग बोल रहे हैं और इसे करोड़ों भारतीय सुन रहे हैं। क्योंकि इन मीडिया चैनलों की कमान ऐसे उद्योगपतियों के हाथ में हैं जिनके वर्तमान सरकार से बेहद निकट के संबंध हैं। संबंध इतने प्रगाढ़ हैं कि उद्योगपतियों के प्रभुत्व वाला यह मीडिया आम को गोभी और गोभी को आम बताने में भी शर्म महसूस नहीं कर रहा है। बीमार होने पर अस्पताल की जरुरत नहीं पड़ेगी यह कहकर भी, इतनी बड़ी अफवाह फैलाकर भी कोई पत्रकार अपने करोड़ों के घर में पैर फैलाकर सोता है जबकि करोड़ों भारतीय बीमारी और परेशानी को झेलेने के लिए बाध्य हैं।
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मर्यादा पुरुषोत्तम राम का व्यक्तित्व बहुत ही विराट है लेकिन यदि इस विराट व्यक्तित्व के पीछे छिपकर मोदी सरकार अपनी तमाम नाकामियों को छिपाने में कामयाब हो जाती है, तो अब ये सही वक्त है कि भगवान सूक्ष्म रूप धारण कर लें ताकि वर्तमान सरकार की असफलताएं उजागर हो सकें। अन्यथा यह सरकार और पीएम मोदी कुछ भी और कभी भी बोलते रहेंगे उन्हे रोका नहीं जा सकेगा।
उदाहरण के लिए पीएम मोदी का बुलंदशहर में दिया गया भाषण ही सुनिए। यहाँ उन्होंने कहा कि- जब सरकारी योजनाएं सौ फीसदी लाभार्थियों तक पहुँचती हैं तो किसी भी भेदभाव और भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही नहीं रह जाती और यही सच्ची ‘धर्मनिरपेक्षता’ तथा सच्चा ‘सामाजिक न्याय’ है।
धर्मनिरपेक्षता सरकारी योजनाओं या भोजन का समान वितरण नहीं है। अगर धर्म निरपेक्षता को किसी ‘वितरण’ से जोड़ना ही है तो यह ‘धार्मिक स्वतंत्रता के समान वितरण’ से जोड़ी जानी चाहिए। जिसमें धर्म के आधार पर सरकारी मशीनरियों और उनके समर्थकों द्वारा पैदा किए जा रहे भय को शून्य किया जाना अवश्यंभावी शर्त है। ऐसे ही, यदि जाति या लैंगिक आधार पर भेदभाव बना रहता है तब लाइन में लगाकर खाद्य वितरण कर देने से सामाजिक न्याय सुनिश्चित नहीं होगा।
प्रधानमंत्री स्वयं से पूछें कि क्या उनको ऐसी महिलाओं की जानकारी है जिनका शारीरिक और मानसिक शोषण हुआ है? क्या वो ऐसी खबरें पढ़ रहे हैं जिसमें उनके ही गृहराज्य में एक आदमी को राज्य पुलिस, खंभे में बांधकर मारती है? यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचता है। क्या न्यायालय से पहले सरकार न्याय देने में योगदान नहीं दे सकती थी? क्या जरूरी था कि ऐसे पुलिस वालों को दांडिक प्रक्रिया से बचाया जाए? इन सब सवालों के जवाब मोदी जी को देने चाहिए। लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि वो कभी भी इन सवालों के जवाब नहीं देंगे। वो तो बस बोलेंगे! और कहेंगे कि “मेरे लिए जनता चुनावी बिगुल फूँकती है”। बहुत अच्छी बात है कि जनता आपके लिए चुनावी बिगुल फूँकती है लेकिन सवाल यह है कि कहीं आपने तो कुछ ऐसा नहीं फूँक दिया जिससे जनता अनजान है? उद्योगपतियों के माफ किए कर्जों ने बैंकों को फूँक दिया है, एयर इंडिया बेच दिया गया, ओएनजीसी और एलआईसी धीरे धीरे खाली किए जा रहे हैं। पोर्ट्स और खदानें एक उद्योगपति को दी जा रही हैं।
आईडीबीआई बैंक और पवन हंस को भी बेचने की योजना है। 2014-2018 के बीच मोदी सरकार ने लगभग 1 लाख 94 हजार करोड़ रुपये की सरकारी कंपनियों को प्राइवेट हाथो में सौंप दिया। 2018-19 में लगभग 94 हजार करोड़ रुपये, 2019-20 में 50 हजार करोड़ और 2020-21 में 32 हजार करोड़ रुपये की सरकारी संपत्ति प्राइवेट हाथों में बेच दी गई। इस विनिवेश को लेकर अर्थशास्त्रियों में मतभेद हो सकते हैं लेकिन इतनी रफ्तार से सरकारी संपत्ति को औने-पौने दामों में प्राइवेट लोगों को बेचना कहाँ तक उचित है? जनता को यदि यह सब पता चले तब वो शायद भारत के संसाधनों की हो रही लूट को बचाने के लिए चुनाव का असली बिगुल फूंके!
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