इंसान संस्थाओं का निर्माण करता है और उनका संचालन करता है लेकिन इंसानों के उलट यदि संस्थाएँ अपनी उम्र बढ़ने के साथ अधिक गतिशील और युवा नहीं हो पातीं तो, वो अपना अस्तित्व खो बैठती हैं। लोकतंत्र को सिर्फ चुनाव और जनप्रतिनिधियों तक समेटना घातक हो सकता है। कोई भी व्यक्ति या कोई भी पार्टी किसी लोकतंत्र का चेहरा नहीं हो सकती। लोकतंत्र के चेहरे के लिए या उसका ‘पोस्टर मैन’ बनने के लिए सबसे मुफीद आकार और पहचान हैं उस लोकतंत्र की उत्तरोत्तर युवा और गतिशील होती संस्थाएं। संस्थाएं आम जनमानस में भरोसा पैदा करती हैं और लोकतंत्र लगातार मजबूत और स्थायी होने लगता है। लेकिन यदि कभी, किसी खास ‘कालचक्र’ में एक व्यक्ति को ‘मनचाहे’ तरीके से संस्थाओं के स्वरूप निर्धारण करने की छूट दे दी जाती है तो राष्ट्र के लिहाज से वह समय ‘अमृत काल’ की बजाय विषकाल की ओर अग्रसर हो जाता है। भारत संभवतया इसी ओर अग्रसर होता दिखाई दे रहा है।