इंसान संस्थाओं का निर्माण करता है और उनका संचालन करता है लेकिन इंसानों के उलट यदि संस्थाएँ अपनी उम्र बढ़ने के साथ अधिक गतिशील और युवा नहीं हो पातीं तो, वो अपना अस्तित्व खो बैठती हैं। लोकतंत्र को सिर्फ चुनाव और जनप्रतिनिधियों तक समेटना घातक हो सकता है। कोई भी व्यक्ति या कोई भी पार्टी किसी लोकतंत्र का चेहरा नहीं हो सकती। लोकतंत्र के चेहरे के लिए या उसका ‘पोस्टर मैन’ बनने के लिए सबसे मुफीद आकार और पहचान हैं उस लोकतंत्र की उत्तरोत्तर युवा और गतिशील होती संस्थाएं। संस्थाएं आम जनमानस में भरोसा पैदा करती हैं और लोकतंत्र लगातार मजबूत और स्थायी होने लगता है। लेकिन यदि कभी, किसी खास ‘कालचक्र’ में एक व्यक्ति को ‘मनचाहे’ तरीके से संस्थाओं के स्वरूप निर्धारण करने की छूट दे दी जाती है तो राष्ट्र के लिहाज से वह समय ‘अमृत काल’ की बजाय विषकाल की ओर अग्रसर हो जाता है। भारत संभवतया इसी ओर अग्रसर होता दिखाई दे रहा है।
‘कमज़ोर संस्थाओं’ से अमृतकाल नहीं, विषकाल तैयार होता है!
- विमर्श
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- 4 Feb, 2024

क्या संसद द्वारा पारित कोई भी कानून इतना सशक्त हो सकता है या उसे इतनी ताकत दी जा सकती है कि वो भारत के संविधान के मूल ढांचे को चुनौती देने लगे?
इतालवी उपन्यासकार और पत्रकार अल्बर्ट मोराविया कहते थे कि “तानाशाही एकतरफा सड़क है जबकि लोकतंत्र दोतरफा यातायात का दावा करता है।” भारत में ED, CBI और आयकर विभाग के माध्यम से जो कुछ भी करने की कोशिश की जा रही है वह निश्चित रूप से एक तरफा सड़क ही है। इन संस्थाओं के स्वरूप में सरकार द्वारा जो इंजीनियरिंग की जा रही है उससे ये संस्थाएं विपक्षी नेताओं, दलों, विचारों को ही लगातार टारगेट करने में लगी हैं। PMLA और UAPA के माध्यम से एक-एक करके हर ऐसे दल के महत्वपूर्ण नेताओं और समाजसेवियों को टारगेट किया जा रहा है जोकि वर्तमान केंद्र सरकार के कामकाज से सहमत नहीं है।